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करण १]
श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचारधारा
मन्दिरों की पण्डागिरी का बोलबाला था । उसे दूर करने के लिए इन्होंने अथक परिश्रम किया और आज वह बहुत कुछ मिटाया जा चुका है। श्री बाहुबली स्वामी की प्रतिमा के समक्ष इन्होंने प्रण किया कि जबतक जैन-धर्म से संबन्धित संपूर्ण साहित्य की खोज पूरी नहीं हो जायगी और उसकी सुरक्षा का यथोचित प्रबन्ध नहीं हो जायगा; मैं ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करूँगा ।
इस प्रकार बम्बई, श्रवणबेलगोला, मैसूर, बंगलोर तथा अन्य स्थानों के सभी मन्दिरों का निरीक्षण करते हुए ये मूड़विद्री पहुँचे। यहाँ पर प्राप्त जैन मूर्तियों और पुरातत्त्वों के विशाल भण्डार से वहाँ के अनभिज्ञ जैन समाज को उदासीन देखकर इन्होंने एक सभा का आयोजन किया और उन्हें धर्म तथा शिक्षा के प्रति श्रद्धान्वित किया । फलस्वरूप वहाँ के जैनियों में एक नवीन जाग्रति फैल गयी और शीघ्र ही पर्याप्त धन इकट्ठा कर इनके द्वारा प्रदर्शित कार्यक्रम का अनुष्ठान श्रारंभ हो गया । इस प्रकार इन्होंने समस्त दक्षिण - प्रान्त के जैन समाज को अपनी संस्कृति से अवगत कराकर लुप्त जैन-संस्कृति को फिर से स्थापित किया ।
कुमार जी ने अखिल भारतीय - जैन - महासभा को भी अपनी अद्वितीय जीवन-शक्ति से अनुप्राणित कर उसे जैन समाज का सच्चा प्रतिनिधि बना दिया । सन् १६०७ में उक्त महासभा के कुण्डलपुर के अधिवेशन में सभापति के आसन से इन्होंने जो विचार प्रकट किये वे आज भी जैन समाज के भावी कार्यक्रम की श्राधारशिला बनने की योग्यता रखते हैं। इनके द्वारा निरूपित जैन समाज की आधुनिक अवस्था का दयनीय विवरण जातीय गौरव से युक्त किसी भी जैनधर्मावलम्बी में उत्साह उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है ।
कुमारजी अपने व्यक्तिगत जीवन में भी परिचय इसीसे मिल सकता है कि भाद्रपद के दो चार पृष्ठ सम्पादकीय देने का नियम भी निर्माण करने के लिए इन्होंने १६ अक्टूबर सन्
धार्मिक आचरणों को कितना महत्व देते थे इसका पवित्र मास में इन्हें जैनगजट के प्रत्येक अंक में त्यागना पड़ जाता था । धार्मिक ग्रन्थों की सूची १६०५ को एक सूचना प्रकाशित की थीजहाँ जहाँ जैन शास्त्रों
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"हम भारत मात्र के जैन शास्त्रों की सूची बनाना चाहते है ।
के भण्डार हों वहाँ वहाँ के भाई हमसे फार्म मंगा लें और भरकर भेज दें तो बड़ी कुरा हो" ।
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यही नहीं इन्हीं के उद्योग से 'जैन यंगमेन्स ऐसोसियेशन' नामक धार्मिक ग्रन्थ प्रकाशक कमेटी का संगठन भी हुआ, जिसके ये स्वयं वाइस प्रेसिडेन्ट थे । ये सदैव योग्य छात्रों को तमगे और वजीफे देकर उत्साहित करते रहते थे । जैन एसोसियेशन के छठे अधिवेशन में इन्होंने शुद्ध संस्कृत उच्चारण के लिए तथा जैन धर्म पर एक पुस्तक लिखने के लिए दो तमगे बाँडे थे । अपनी जाति के विस्मृत लोगों को पुनः संस्कृत करने के कार्य में ये अत्यन्त तत्परता दिखलाते थे । राँची के पास बु ंद नामक स्थान में कुछ श्रात्मविस्मृत जैन जाति का पता पाकर इन्होंने शीघ्र ही जैन गजड में यह सूचना प्रकाशित की