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[ भाग १८
किया, क्योंकि इसके द्वारा जनसमाज में किसी विचार का प्रसार अत्यन्त सुलभ और प्रभावोत्पादक हो सकता है । विदेशी भाषा से यह कार्य्यं कठिन हो जाता है और हमारी उन्नति की गति धीमी पड़ जाती है। उनका कहना है - "हमारे लिखने का यह प्रयोजन नहीं है कि विदेशीय भाषा न सखी जाय, किन्तु यह है यदि हम अपनी मातृभाषा में विज्ञान की चर्चा, डाक्टरी की पुस्तकें, वकालत के ग्रन्थ आदि पढ़ने लगें तो हमारा कितना समय बचे और वह बचा हुआ समय उस हुनर की उन्नति में लगाया जाय तो हमारे यहाँ विद्या का प्रकाश कितनी जल्दी हो ।”
इसलिए अपनी मातृभाषा का साहित्य भाण्डर भरने के लिए
"हमारे स्वदेशवासियों का यह कर्त्तव्य है कि वे नाना प्रकार की विद्याओं की पुस्तकों का उल्था विदेशीय भाषाओं से सुगम देवनागरी भाषा में करके धीरे धीरे इस बात का प्रचार बढ़ावें कि सामान्य नागरी जाननेवाला महाजन व दुकानदार भी उन पुस्तकों को पढ़कर उस विद्या के ज्ञान से तो विश हो जाय ।"
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भास्कर
नहीं तो निश्चित है कि
" देश की उन्नति बिना स्वदेशीय भाषा का श्राश्रय लिए तथा विद्या की प्राप्ति में विदेशीय भाषा का श्राश्रय छोड़े नहीं हो सकी है । "
भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में ये सरलता के पक्षपाती थे
"संस्कृत शब्दों की अधिकता " विशेष रुचिकर न होगी। उनके स्थान में श्राजकल के बोलचाल के शब्दों में वस्तुओं के स्वरूप को समझाने से विशेष लाभ होने की श्राशा है ।"
इसीलिये वे हिन्दी-प्रचार में जैनियों को भी सहयोग देने का परामर्श देते हैं— " श्रारा नागरी प्रचारिणी सभा हिन्दी प्रचार में यथोचित यत्न करती रहती है । हम इसकी सफलता के इच्छुक हैं। देशोपकारी जैनियों को भी उक्त सभा के साथ विशेष सहानुभूति रखनी चाहिये ।"
हिन्दी-साहित्य के विकास में सर्वप्रधान बाधा रही है, ग्रन्थकारों के प्रति प्रोत्साहन का प्रभाव; नहीं तो
" भारतवर्ष में हिन्दी लेखकों का टोटा नहीं है । परन्तु उनके ग्रन्थ द्रव्याभाव से नहीं छपते र पड़े पड़े सड़ जाते हैं । ग्रन्थकार भी समुचित श्रादर तथा पुरस्कार नहीं पाकर हताश हो जाते हैं ।”
ये स्त्रियों को भी लेखन कार्य लिए उत्साहित करते रहते थे । साहित्य के कुछ अंगों के प्रति इनके व्यक्तिगत सिद्धान्त मी विचारणीय हैं। नाटक के अभिनेता के गुणों का निरूपण करते हुए ये कहते हैं