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उत्तरज्झयणाणि
२६.समरेसु अगारेसु सन्धीसु य महापहे । एगो एगित्थिए सद्धिं नेव चिट्ठे न संलवे ।।
२७. जं मे बुद्धाणुसासंति
सीएण फरुसेण वा । मम लाभो त्ति पेढाए पयओ तं पडिस्सुणे ॥ २८. अणुसासणमोवायं
दुक्कडस्स व चोयणं । हियं तं मन्नए पण्णो वेसं होइ असाहुणो ।। २६. हियं विगयभया बुद्धा फरुसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं खंतितसोहिकरं पर्व ॥
२०. आसणे उवचिट्ठेज्जा अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जण्यकुक्कुए ।।
३१. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेन य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जित्ता काले कालं समायरे ।। ३२. परिवाडिए न चिट्ठेज्जा भिक्खू दत्तेसणं चरे । पडिरूवेण एसित्ता मियं कालेण भक्खए ।। ३३. नाइदूरमणासन्ने
नन्नेसिं चक्खुफासओ । एगो चिट्ठेज्ज भत्तट्ठा लंघिया तं नइक्कमे ।।
३४. नाइउच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ । फासुयं परकडं पिण्डं पडिगाहेज्ज संजए ।।
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स्मरेषु अगारेषु सन्धिषु च महापथे ।
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एक एकस्त्रिया सार्धं नैव तिष्ठेन्न संलपेत् ।।
यन्मां बुद्धा अनुशासति शीतेन परुषेण वा । मम लाभ इति प्रेक्ष्य प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ।।
अनुशासनमौपाय दुष्कृतस्य च चोदनम् । हितं तन्मन्यते प्राज्ञः द्वेष्यं भवत्यसाधोः ।।
हितं विगतभया बुद्धाः परुषमप्यनुशासनम् । द्वेष्यं तद् भवति मूढाना क्षान्तिशोधिकरं पदम् ।।
आसने उपतिष्ठेत अनुच्चे अकुचे स्थिरे । अल्पोत्थायी निरुत्थायी निषीदेदल्पकुक्कुचः ।।
काले निष्कामे भिक्षुः काले च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्ज्य काले कालं समाचरेत् ।। परिपाट्यां न तिष्ठेत् भिक्षुषणां चरेत्। प्रतिरूपेषयित्वा मितं काले भक्षयेत् ।। नातिदूरेऽनासन्ने नान्येषां चक्षुः स्पर्शतः । एकस्तिष्ठेव भक्तार्थ: लङ्घयित्वा त नातिक्रामेत् ।
नात्युच्चे वा नीचे वा नासन्ने नातिदूरतः । प्रासुके (स्पर्श) परकृतं पिण्डं प्रतिगृह्णीयात् संयतः ॥
अध्ययन १
: श्लोक २६-३४
कामदेव के मंदिरों में, घरों में, दो घरों के बीच की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहे और न संलाप करे ।
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आचार्य मुझ पर कोमल या कठोर वचनों से जो अनुशासन करते हैं वह मेरे लाभ के लिए है - ऐसा सोचकर, जागरूकता पूर्वक उनके वचनों को स्वीकार करे ।
मृदु या कठोर वचनों से किया जाने वाला अनुशासन हित-साधन का उपाय और दुष्कृत का निवारक होता है। प्रज्ञावान् मुनि उसे हित मानता है। वही असाधु के लिए द्वेष का हेतु बन जाता है।
भयमुक्त बुद्धिमान् शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । परन्तु मोहग्रस्त व्यक्तियों के लिए वही - सहिष्णुता और चित्तविशुद्धि करने वाला, गुणवृद्धि का आधारभूत - अनुशासन द्वेष का हेतु बन जाता है।
जो
गुरु के आसन से नीचा हो, अकम्पमान हो और स्थिर हो (जिसके पाये धरती पर टिके हुए हों), वैसे आसन पर बैठे प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे और प्रयोजन के बिना तो उठे ही नहीं बैठे तब स्थिर एवं शांत होकर बैठे, हाथ-पैर आदि से चपलता न करे।
I
समय पर भिक्षा के लिए निकले, समय पर लौट आए। अकाल को वर्जनकर, जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे ।
भिक्षु परिपाटी (पंक्ति) में खड़ा न रहे।" गृहस्थ के द्वारा दिए हुए आहार की एषणा करे । प्रतिरूप ( मुनि के वेष ) में एषणा कर यथासमय मित आहार
करे ।
पहले से ही अन्य भिक्षु खड़े हों तो उनसे अति दूर या अति समीप खड़ा न रहे और देने वाले गृहस्थों की दृष्टि के सामने भी न रहे। किन्तु अकेला (भिक्षुओं और दाता दोनों की दृष्टि से बचकर खड़ा रहे। भिक्षुओं को लांघकर भक्त लेने के लिए न
जाए
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संयमी मुनि प्रासुक और गृहस्थ के लिए बना हुआ आहार ले किन्तु अति ऊंचे या अति नीचे स्थान से लाया हुआ तथा अति समीप या अति दूर से दिया जाता हुआ आहार न ले ।
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