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रहते थे । किन्तु हर एक बात के लिए समय बलवान् होता है । जब तक जिसका समय नहीं आता, लाख प्रयत्न करने पर भी वह बात सिद्ध नहीं होती ।
__अन्ततः बहुत प्रतीक्षा के बाद वह समय आ ही गया । एक समय की बात है, आप को किसी कार्य के लिए मुकाम नारोवाल जाना पड़ा । वहां से लौटते समय आप 'डेक' नामक नदी के किनारे पहुंचे । इस नदी पर न तो कोई पुल ही था, न नावें ही चलती थीं । केवल किनारे पर एक खेवट रहता था । वही पथिकों को इधर से उधर और उधर से इधर पार कर दिया करता था । वह आपके कहने पर आपको भी पार करने के लिए राजी हो गया । आपके साथ दो आदमी और भी पार जाने को थे । खेवट ने तीनों का हाथ पकड़ लिया और नदी में उतर आया । जब ये लोग अभी बीच नदी में थे कि दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य से नदी में बाढ़ आ गई । यह देखकर खेवट तो जान बचाकर भागा और ये बेचारे पानी में गोते खाने लगे । उस समय अन्तिम समय समीप समझ कर आपने विचार किया कि इस समय यदि इस कष्ट से छूट जांऊगा तो गृहस्थाश्रम छोड़कर मुनि-वृत्ति धारण कर लूंगा । उनके इस बात के विचारते ही दैव-योग से अथवा उनके पुण्यों के प्रभाव से या आयुष्कर्म के दीर्घ होने से उस प्रबल प्रवाह के धक्के से ही आप नदी के किनारे लग गये । शेष दो साथी उस प्रवाह-रूपी काल की कराल गाल में समा गये ।
घर पहुंचने पर आपने अपनी आप-बीती सब को सुनाई, जिसको सुनकर आपके जीवन के पुनरावर्तन से कुटुम्बी जनों को अतीव हर्ष हुआ | किन्तु जब आपने अपनी प्रतिज्ञा के पालन के लिए उन लोगों से दीक्षित होने की आज्ञा मांगी तो सारा परिवार चिन्ता और शोक से व्याकुल हो गया । किन्तु अब इससे क्या होना था । वे दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुके थे। जिस हंस को एक बार मानसरोवर प्राप्त हो जाता है, क्या वह उससे लौटने की इच्छा करेगा ? पारिवारिक अनेक विघ्न भी उनको अपने निश्चय से न हटा सके । आपने घर से आज्ञा न मिलने पर सांसारिक धन्धों को छोड़ कर केवल धर्म-मय जीवन व्यतीत करने के लिए जैन उपाश्रय में ही निवास कर लिया । उसी समय श्री दूलोराय जी तथा श्री १००८ पूज्य सोहनलाल जी महाराज ने भी, जो पसरूर में अपने नाना के घर में रहते थे, अपने जीवन को पवित्र बनाने के लिए धार्मिक जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ किया । इन तीन व्यक्तियों का परस्पर संसर्ग से वैराग्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला गया । आखिर, घर वाले भी उनकी इस आत्मिक उन्नति में अधिक बाधक न हुए और उन्होंने इन लोगों को दीक्षित होने की आज्ञा दे दी ।
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