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ध्यान रहे कि धर्म - कथानुयोग में उन्हीं भव्य आत्माओं का जीवन-चरित्र रहता है, जिन्होंने सब तरह से अपने इस मनुष्य-जीवन को सफल बनाया है । उनका चरित्र जनता के लिए अमूल्य शिक्षाओं का भण्डार होता है । अनेक व्यक्ति उनके चरित्र का अध्ययन कर और उसका अनुशीलन कर स्वयं भी उन्हीं के समान आदर्श पुरुष बन जाते हैं और बनते रहे हैं । व्यावहारिक पक्ष में जनता को सुशिक्षित बनाने वाला एक चारित्र - धर्म ही प्रधान माना गया है, क्योंकि न्याय - पथ-प्रदर्शक एक चारित्र - धर्म ही है । इसी बात को लक्ष्य में रख कर हम अपने पाठकों के सामने एक महर्षि का जीवन रखते हैं। आशा है कि पाठक अवश्य ही उनके जीवन-चरित्र से कई एक अनुपम शिक्षाओं को ग्रहण कर अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करेंगे ।
जिन महर्षि का जीवन चरित्र हम यहां देने लगे हैं, वे बिलकुल आधुनिक हैं । आज कल जनता प्रायः धर्म के मार्ग से पीछे हट रही है, बल्कि यहां तक कि धर्म को अपनी उन्नति के मार्ग में कण्टक भी समझने लगी है । इन धार्मिक क्रान्ति के दिनों में भी उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध कर दिया है कि जिन झगड़ों में तुम फंसे हो, वे वास्तविक नहीं हैं । धर्म ही एक वास्तविक शान्ति प्रदान कर सकता है । अतः इस ओर आओ, तुम्हारा कल्याण होगा ।
आप थे, सुगृहीत - नामधेय श्री १००८ गणावच्छेदक स्थविर - पद- विभूषित श्रीमद् गणपतिराय जी महाराज | आपका जन्म जिला स्यालकोट, पसरूर शहर में भाद्रपद कृष्णा तृतीया संवत् १९०६ वि० के मंगलवार को लाला गुरुदासमल श्रीमाल काश्यप गोत्र के अन्तर्गत त्रिपंखिये गोत्र की धर्मपत्नी माई गौर्यां की कुक्षि से हुआ था । आपके निहालचन्द्र, लालचन्द्र पालामल और पञ्जुमल चार भ्राता थे और श्रीमती निहालदेवी, पालीदेवी और तोतीदेवी तीन बहनें थी । आपका बालकपन बड़े आनन्द से व्यतीत हुआ । इसके अनन्तर आपने व्यापार-विषयक शिक्षा प्राप्त की । युवावस्था आने पर आपका नूनार ग्राम में १६२४ में विवाह संस्कार हुआ ।
इसके बाद आपने सराफे की दुकान खोली । आपकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी । चांदी और सोने की परीक्षा आप बड़ी निपुणता और सूक्ष्म दृष्टि से करते थे । बालकपन से ही आपकी धर्म की ओर विशेष रुचि थी। यही कारण था कि आप प्रत्येक धार्मिक उत्सव में सदैव विशेष भाग लेते थे । सांसारिक पदार्थों की ओर आपकी स्वाभाविक अरुचि थी । सांसारिक सुखों को आप बन्धन समझते थे और सदैव इस बन्धन से छूटने के प्रयत्न में
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