Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२०
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्,
इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा - इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिज्जइ, अग्गपिंडे दिज्जइ, नियए भाए दिज्जइ, अवड्ढभाए दिज्जइ, तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निइउमाणाइं नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जाए ॥९ ॥ त्तिबेमि
छाया - स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेष्टकामः तत् यानि पुनः कुलानि जानीयात् - इमेषु खलु कुलेषु नित्यं पिण्डः दीयते, अग्रपिण्डः दीयते, नित्यं भागः दीयते नित्यं अपार्द्ध भागः दीयते, तथा प्रकाराणि कुलानि नित्यानि नित्य मुमाणंति ( प्रवेशः) नो भक्तार्थं पानार्थं वा प्रविशेद् निष्क्रमेद् वा एतत् खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुक्या वा सामग्रयं यत् सर्वार्थैः समितः सहितः सदा यतेत । इति ब्रवीमि ।
"
।
पदार्थ - से वह । भिक्खू वा भिक्षु साधु वा । भिक्खुणी वा साध्वी । गाहावइकुलं - गृहपति कुल में। पिंडवायपडियाए- आहार लाभ की प्रतिज्ञा से । पविसिउकामे प्रवेश करने की इच्छा रखता हुआ । से-वह साधु। जाई-जो। पुण-फिर । कुलाई कुलों को । जाणिज्जा - जाने । खलु वाक्यालंकार अर्थ में है। इमेसु कुलेसु-इन कुलों में । निइए नित्य । पिंडे दिज्जइ-आहार दिया जाता है। अग्गपिंडे दिज्जइ-अग्रपिंडप्रथम आहार दिया जाता है। नियए भाए दिज्जइ-नित्य भाग दिया जाता है। नियए अवड्ढभाए दिज्जइ-नित्य चतुर्थ भाग दिया जाता है। तहप्पगाराई कुलाई- इस प्रकार के कुलों में । निइउमाणाइं-नित्य ही स्वपक्ष और पर पक्ष के साधु दान के लिए प्रवेश करते हैं। नो भत्ताए वा पाणाए वा - इस प्रकार के कुलों में भक्तपान-अन्न और जल आदि के लिए न तो । पविसिज्ज वा प्रवेश करे और । निक्खमिज्ज वा निकले। खलु-वाक्यालंकार में है। एयं - यह । तस्स - उस । भिक्खुस्स भिक्षु और । भिक्खुणीए वा - साध्वी की । सामग्गियं - समग्रता समाचा है । जं- जो कि । सव्वट्ठेहिं सर्व अर्थों में अर्थात् शब्दादि अर्थों में। समिए संयत है । सहिए-हित युक्त हैअथवा ज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त है। सए सदा । जए प्रयत्न करे संयम युक्त होवे । त्तिबेमि - इस प्रकार मैं कहता
हूँ।
मूलार्थ - गृहस्थ के कुल में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रवेश करने की इच्छा रखने वाले साधु या साध्वी इन वक्ष्यमाण कुलों को जाने, जिन कुलों में नित्य आहार दिया जाता है, अग्रपिंड आहार में से निकाला हुआ पिंड दिया जाता है, नित्य अर्द्ध भाग आहार दिया जाता है, नित्य चतुर्थ भाग आहार दिया जाता है, इस प्रकार के कुलों में जो कि नित्यदान देने वाले हैं तथा जिन कुलों में भिक्षुओं का भिक्षार्थ निरन्तर प्रवेश हो रहा है ऐसे कुलों में अन्न पानादि के निमित्त साधु न जाए।