Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
त्रीण्येव च कोटि शतानि, अष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शत सहस्राणि एतत् सम्वत्सरे दत्तम् ॥३॥ वैश्रमणकुण्डलधरा देवाः, लोकान्तिका महर्धिकाः । बोधयन्ति च तीर्थंकरं, पंचदशसु कर्मभूमिषु ॥ ४ ॥ ब्राह्मे च कल्पे बोधव्याः कृष्णराजेः मध्ये । लोकान्तिका विमानाः अष्टसु विस्ताराः असंखेयाः ।५ । एते देवनिकायाः भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरं वीरम् । सर्वजगज्जीवहितं, अर्हन् ! तीर्थं प्रवर्तय । ६ ।
पदार्थ- अभिनिक्खमणं तु-दीक्षा लेने का समय । जिणवरिं दस्स-जिनेन्द्र देव का । संवच्छरेण होहि -आज से एक वर्ष पश्चात् होगा । तो- तत्पश्चात् । अत्थसंपयाणं - अर्थ संपदा - धन सम्पत्ति का दान पुव्वसूराओ पवत्त-जब पूर्व दिशा में सूर्य का उदय होता है तब से आरम्भ होता है।
मूलार्थ - श्री भगवान दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले साम्वत्सरिक दान- वर्षी दान देना आरम्भ कर देते हैं, और वे प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक दान देते हैं। पदार्थ- एगा हिरण्णकोडी - एक करोड़ मुद्रा और । अणूणगा- सम्पूर्ण । अट्ठेव - 3 सयसहस्सा - लाख अधिक मुद्रा का दान ।' । सूरोदयमाईयं - सूर्योदय से लेकर जा-जो । पायरासुत्ति- एक प्रहर पर्यन्त । दिज्जइ - दिया जाता है ।
-आठ 1
मूलार्थ - एक करोड़ आठ लाख मुद्रा का दान सूर्योदय से लेकर एक प्रहर पर्यन्त दिया
जाता है।
पदार्थ - तिन्नेव-तीन । य-पुनः । कोडिसया - सौ क्रोड़। च- और। अट्ठासीइं हुंति कोडीओअठासी ८८ क्रोड़ होते हैं। च पुनः - फिर । असिई सयससहस्सा - अस्सी ८० लाख एवं संवच्छरे दिन्नंभगवान ने एक वर्ष में इतनी स्वर्ण मुद्रा दान में दी।
मूलार्थ -: - भगवान ने एक वर्ष में ३८८ करोड़ ७० लाख मुद्रा का दान दिया।. पदार्थ - वेसमणकुण्डधारी देवा - कुण्डल धारण करने वाले वैश्रमण देव और । महिड्ढियामहा ऋद्धि वाले। लोगंतिया - लौकान्तिक देव । पन्नरस्सु कम्मभूमिसु १५ कर्म भूमि में होने वाले । तित्थयरंतीर्थंकर भगवान को । य- पुनः । बोहिंति - प्रतिबोधित करते हैं।
मूलार्थ — कुण्डल के धारक वैश्रमण देव और महाऋद्धि वाले लोकांतिक देव १५ कर्म-भूमि में होने वाले तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं।
पदार्थ - य-पुनः । बंभंमि कप्पंमी - ब्रह्म कल्प में । कण्हराइणो मज्झे- कृष्णराजि के मध्य में । अट्ठसु-आठ प्रकार के। असंखिज्जा - असंख्यात । वत्था - विस्तार वाले लोगंतिया विमाणा - लौकान्तिक" देवों के विमानों को। बोधव्वा - जानना चाहिए।
मूलार्थ — ब्रह्मकल्प में कृष्णराजि के मध्य में आठ प्रकार के लौकान्तिक विमान