Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पञ्चदश अध्ययन
४५७ श्रमण। जाव-यावत्। लोयं करित्ता-लोचकर अर्थात् केशों का लुंचन करके फिर। सिद्धाणं-सिद्धों को। नमुक्कारं-नमस्कार। करेइ २ त्ता-करते हैं उन्हें नमस्कार करके फिर।मे-मुझे।सव्वं-सर्व प्रकार से।पावकम्मंपाप कर्म। अकरणिज-अकरणीय है। तिकटु-ऐसा कहकर भगवान। सामाइयं चरित्तं-सामायिक चारित्र को। पडिवजइ-ग्रहण करते हैं और सामायिक चारित्र को ग्रहण करके फिर उस समय भगवान ने। देवपरिसं च-देव परिषद् और।मणुयपरिसं च-मनुज परिषद् को।आलिक्खचित्तभूयमिव-भीत पर लिखे हुए चित्र की भांति। ठवेइ-बना दिया अर्थात् भगवान को दीक्षित होते देख कर देवों की और मनुष्यों की परिषदा भित्ति-चित्र की तरह चेष्टा रहित स्तब्ध सी हो गई।
मूलार्थ-उस काल और उस समय में जब हेमन्त ऋतु का प्रथम मास प्रथमपक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्ण पक्ष था, उसकी दशमी तिथि के सुव्रत दिवस विजय मुहूर्त में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर पूर्वगामिनी छाया और द्वितीय प्रहर के बीतने पर निर्जल-बिना पानी के दो उपवासों के साथ एक मात्र देवदूष्य वस्त्र को लेकर चन्द्रप्रभा नाम की सहस्र वाहिनी शिविका में बैठे। उसमें बैठकर वे देव मनुष्य तथा असुर कुमारों की परिषद् के साथ उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश के मध्य २ में से होते हुए जहां ज्ञात खण्ड नामक उद्यान था वहां पर आते हैं। वहां आकर देव थोड़ी सी-हाथ प्रमाण ऊंची भूमि पर भगवान की शिविका को ठहरा देते हैं। तब भगवान उसमें से शनैः २ नीचे उतरते हैं और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ जाते हैं। उसके पश्चात् भगवान् अपने आभरणालंकारों को उतारते हैं तब वैश्रमण देव भक्ति पूर्वक भगवान के चरणों में बैठकर उनके आभरण और अलंकारों को हंस के समान श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है। तत् पश्चात् भगवान ने दाहिने हाथ से दक्षिण की ओर के केशों का और वाम कर से बाईं ओर के केशों का पांच मुष्टिक लोच किया, तब देवराज शक्रेन्द्र श्रमण भगवान महावीर के चरणों में पड़ कर घुटनों को नीचे टेक कर वज्रमय थाल में उन केशों को ग्रहण करता है और हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो, ऐसा कहकर उन केशों को क्षीरोदधि-क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देता है। इसके पश्चात् भगवान सिद्धों को नमस्कार करके सर्वप्रकार के सावद्यकर्म का परित्याग करते हुए सामायिक चारित्र ग्रहण करते हैं। उस समय देव और मनुष्य दोनों भीत पर लिखे हुए चित्र की भांति अवस्थित हो गए, अर्थात् चित्रवत् निश्चेष्ट हो गए।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भगवान की दीक्षा के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। जब भगवान की शिविका ज्ञात खण्ड बगीचे में पहुंची तो भगवान उससे नीचे उतर गए और एक वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठ गए और क्रमशः अपने सभी वस्त्राभूषणों को उतार कर वैश्रमण देव को देने लगे। सभी आभूषणों को उतारने के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को तृतीय प्रहर के समय विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर भगवान ने स्वयं पञ्च मुष्टि लुंचन करके सिद्ध भगवान को नमस्कार करते हुए सामायिक चारित्र ग्रहण किया। समस्त सावद्य योगों का त्याग करके भगवान ने साधना के पथ पर कदम रखा। उस समय भगवान ने केवल देवदूष्य वस्त्र स्वीकार किया। भगवान के केशों को शक्रेन्द्र ने ग्रहण किया और उन्हें क्षीरोदधि समुद्र में विसर्जित कर दिया।