Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध क्षय हो जाता है। इस तरह कर्म व्यक्ति की दृष्टि से सादि है, परन्तु समष्टी -प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। क्योंकि संसार में स्थित जीव एक के बाद दूसरी, तीसरी-कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता रहता है। इस कारण उसे नष्ट भी किया जा सकता है और उसे नष्ट करने का साधन है- महाव्रत। क्योंकि, राग-द्वेष, कषाय एवं हिंसा आदि प्रवृत्तियों से कर्म का बन्ध होता है और महाव्रत इन प्रवृत्तियों के-आश्रव के द्वार को रोकने एवं पूर्व बन्धे कर्मों को क्षय करने का महान् साधन हैं। इस तरह संवर के द्वारा आत्मा जब अभिनव कर्म प्रवाह के स्रोत का आना बन्द कर देता है और पुरातन कर्म जल को तप, स्वाध्याय एवं ध्यान आदि साधना से सर्वथा सुखा देता है, क्षय कर देता है, तब वह कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त-उन्मुक्त हो जाता है।
____ अस्तु, महाव्रत की साधना आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करती है और इसका उपदेश सर्वज्ञ पुरुष देते हैं। क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं और अपने निरावरण ज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को सम्यक्तया देखते जानते हैं। अतः उनका उपदेश तेज-अग्नि की तरह प्रकाशमान है और प्रत्येक आत्मा को प्रकाशमान बनने की प्रेरणा देता है।
महाव्रतों को शुद्ध रखने के लिए उत्तर गुणों में सावधानी रखने का आदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्-सिएहि भिक्ख असिए परिव्वए, असज्जमित्थीस चइज्ज पयणं।
अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, न मिजई कामगुणेहिं पंडिए॥७॥ छाया- सितैः भिक्षुः असितः परिव्रजेत्, असज्जन् स्त्रीषु त्यजेत् पूजनम्। ,
अनिश्रितः लोकमिमं तथा परं, न मीयते कामगुणैः पंडितः॥७॥ .
पदार्थ-सिएहिं-कर्म एवं गृहं पाश में आबद्ध व्यक्तियों के साथ।असिए-नहीं बन्धा हुआ।भिक्खूभिक्षु अर्थात् उनका संग न करता हुआ साधु। परिव्वए-संयम ग्रहण कर के विचरे तथा। इत्थीसु-स्त्रियों में। असजं-आसक्त न होता हुआ अर्थात् उनका संग न करता हुआ। पूयणं-अपने पूजा-मान सम्मान की अभिलाषा को। चइज्ज-त्याग कर। अणिस्सिओ-स्त्री संसर्ग से असम्बद्ध होकर। लोगमिणं-इस लोक में। तहा-तथा। परं-पर लोक में अर्थात् इस लोक तथा परलोक के विषय में आशा रहित हो कर। कामगुणेहिं-काम गुणों-प्रिय शब्दादि विषयों को। न मिजइ-स्वीकार न करे। पंडिए-जो साधु काम गुणों को स्वीकार नहीं करता तथा उनके परिणाम को जानता है वह पंडित है।
मूलार्थ-साधु कर्मपाश से बन्धे हुए गृहस्थों या अन्य तीर्थयों के सम्पर्क से रहित होकर तथा स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग करके विचरे और वह पूजा सत्कार आदि की अभिलाषा न करे।
और लोक तथा परलोक के सुख की कामना भी न रखे। वह मनोज्ञ शब्दादि के विषय में भी प्रतिबद्ध न हो। इस तरह उनके कटुविपाक को जानने के कारण वह मुनि पंडित कहलाता है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि साधु को राग-द्वेष से युक्त एवं कम पाश में आबद्ध गृहस्थ एवं अन्य तीर्थयों का संसर्ग नहीं करना चाहिए और उसे स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग कर देना चाहिए। उसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं ऐहिक या पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी नहीं रखनी