Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां अध्ययन मूलम्- दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपया पवेइया।
महागुरू निस्सयरा उईरिया, तमेव तेउत्तिदिसं पगासगा॥६॥ छाया- दिशोदिशं अनन्तजिनेन त्रायिना महाव्रतानि क्षेमपदानि प्रवेदितानि।
महागुरूणि निःस्वकराणि उदीरितानि तम इव तेज इति त्रिदिशं प्रकाशकानि॥६॥
पदार्थ-दिसोदिसं-सर्व एकेन्द्रिय आदिभाव दिशाओं में।खेमपया-रक्षा के पद-स्थान। महव्वयाअहिंसादि महाव्रत। पवेइया-प्रतिपादन किए हैं। ताइणा-षट्काय की रक्षा करने वाले।अणंतजिणेण-अनन्त ज्ञान युक्त जिनेन्द्र भगवान को, अर्थात् जिनेन्द्र देव ने अनन्त आत्माओं की रक्षा के लिए पंच महाव्रतों का प्रतिपादन किया है वे महाव्रत। महागुरू-महान पुरुषों द्वारा पालन किए जाने से महागुरू हैं। निस्सयरा-अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म बन्धन को तोड़ने वाले हैं। उईरिया-आविष्कृत किए हैं प्रकट किए हैं। तमेवतेउत्तिजिस प्रकार तेज अन्धकार को दूर करता है और। दिसं पगासगा-तीन दिशाओं के अन्धकार को नष्ट कर तीनों दिशाओं १. ऊर्ध्व दिशा, २. अधो दिशा और ३. तिर्यक दिशा में प्रकाश करता है ठीक उसी प्रकार कर्म रूपी अन्धकार को विनष्ट करके वे महाव्रत तीन लोक में प्रकाश करने वाले हैं।
मूलार्थ-षट्काय के रक्षक, अनन्त ज्ञान वाले जिनेन्द्र भगवान ने एकेन्द्रियादि भाव दिशाओं में रहने वाले जीवों के हित के लिए तथा उन्हें अनादि काल से आबद्ध कर्म बन्धन से छुड़ाने वाले महाव्रत प्रकट किए हैं। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश करता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज से अन्धकार रूप कर्म समूह नष्ट हो जाता है और ज्ञानवान् आत्मा तीनों लोक में प्रकाश करने वाला बन जाता है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत गाथा में महाव्रतों के महत्व का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि एकेन्द्रियादि भाव दिशाओं में स्थित जगत के जीवों के हित के लिए भगवान ने महाव्रतों का उपदेश दिया है। जिसका आचरण करके आत्मा अनादि काल से लगे हुए कर्म बन्धनों को तोड़कर पूर्णतया मुक्त हो सकता है। क्योंकि भगवान का प्रवचन प्रकाशमय है, ज्योतिर्मय है। इससे समस्त अज्ञान अन्धकार नष्ट हो जाता है, जिस अज्ञान अन्धकार में आत्मा अनादि काल से भटकता रहा है, उससे छूटने का मार्ग मिल जाता है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वज्ञों का उपदेश प्राणी जगत के हितार्थ होता है। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संसार में आत्मा एवं कर्म संबन्ध भी अनादि है। परन्तु, यह अनादिता एक कर्म या एक गति की अपेक्षा नहीं बल्कि कर्म प्रवाह की अपेक्षा से है। बन्धने वाला प्रत्येक कर्म अपनी स्थिति के अनुसार फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाता है, परन्तु साथ में अन्य कर्म बन्धते रहते हैं। इस तरह आत्मा पहले के बांधे हुए कर्मों को यथा समय भोग कर क्षय करता है और फिर नए कर्मों का बन्ध करता रहता है। इस प्रकार कर्मों का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। इस बात को इससे स्पष्ट कर दिया गया है कि महाव्रतों का आचरण करके साधक उस प्रवाह को सर्वथा नष्ट कर सकता है। यदि एक ही कर्म अनादि काल से चला आता हो तो उसे नष्ट करना असंभव था। परन्तु एक कर्म अनादि नहीं है। व्यक्ति की दृष्टि से वह सादि है, अर्थात् अमुक समय में बंधा है और अपने बन्धे हुए काल पर फल देकर