Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां अध्ययन चाहिए। षरन्तु इन सब से मुक्त - उन्मुक्त होकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। क्योंकि गृहस्थ एवं • अन्य मत के भिक्षुओं के सम्पर्क से उसके मन में राग-द्वेष की भावना जागृत हो सकती है और आध्यात्मिक साधना पर संशय हो सकता है। दूसरे में उसका स्वाध्याय एवं चिन्तन करने का अमूल्य समय-जिसके द्वारा वह आत्मा के ऊपर पड़े हुए कर्म आवरण को अनावृत करता हुआ आध्यात्मिक साधना के पथ पर आगे बढ़ता है, व्यर्थ की बातों में नष्ट होगा। और कभी साधु की उत्कृष्ट साधना को देखकर अन्यमत के भिक्षु के मन में ईर्ष्या की भावना जाग उठी तो वह साधु को शारीरिक कष्ट भी पहुंचा सकता है। इस तरह उनका संसर्ग आत्म साधना में बाधक होने के कारण त्याज्य बताया गया 1
इसी तरह स्त्रियों के संसर्ग से भी विषय वासना उद्दीप्त हो सकती है और मान-पूजा प्रतिष्ठा की भावना एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी पतन का कारण है। क्योंकि इसके वशीभूत आत्मा अनेक तरह के अच्छे-बुरे कर्म करता है। इसलिए साधक को इन सब के कटु परिणामों को जान कर इनसे मुक्त रहना चाहिए। जो साधक इनके विषाक्त एवं दुःख परिणामों को सम्यक्तया समझकर इनसे सर्वथा पृथक् रहता है, वही श्रमण वास्तव में पंडित है, ज्ञानी है और वही साधक कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है।
एक उदाहरण के द्वारा इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - तहा विमुक्कस्स परिन्नचारिणो,
. धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं,
समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥८ ॥ छाया - तथा विप्रमुक्तस्य परिज्ञाचारिणो, धृतिमतः दुःखक्षमस्य भिक्षोः । विशुध्यति यस्य मलं पुराकृतं,
समीरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषा ॥ ८ ॥
पदार्थ - तहा - तथा । विमुक्कस्स - विप्रमुक्त-संग से रहित । परिन्नचारिणो ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला। दुक्खखमस्स-दुख को सहन करने वाला। थिईमओ-धैर्यवान। भिक्खुणो- भिक्षुका । पुरेकडं - पूर्वकृत । मलं - कर्म रूप मल । विसुज्झई दूर हो जाता है। व-जैसे जोड़णा- अग्नि द्वारा । समीरियं-प्रेरित किया हुआ । रुप्पमलं - चान्दी का मल अर्थात् जैसे अग्नि द्वारा चान्दी का मल उससे पृथक हो जाता है ठीक उसी प्रकार तप संयम के द्वारा कर्ममल दूर हो जाता है।
मूलार्थ - जिस तरह अग्नि चांदी के मैल को जलाकर उसे शुद्ध बना देती है, उसी प्रकार सब संसर्गों से रहित ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला, धैर्यवान एवं सहिष्णु साधक अपनी साधना से आत्मा पर लगे हुए कर्ममल को दूर करके आत्मा को निरावरण बना लेता है।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कर्म मल को हटाने के साधनों का उल्लेख किया गया है।