Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 546
________________ सोलहवां अध्ययन ५११ गए महाव्रतों एवं अन्य क्रियाओं का पालन करना चाहिए। इससे आत्मा पर पड़ा हुआ कर्मों का बोझिल आवरण दूर हो जाता है। जिससे आत्मा में अपने आपको सर्वथा अनावृत्त करने की महान् शक्ति प्रकट हो जाती है। अब समुद्र का उदाहरण देते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - जमाहु ओहं सलिलं अपारयं, महासमुद्दे व भुयाहि दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चई ॥ १० ॥ छाया - यमाहुः ओघं सलिलं अपारम्, महासमुद्रमिव भुजाभ्यां दुस्तरम् । अथैनं च परिजानीहि पंडितः, स खलु मुनिः अन्तकृत् इति उच्यते ॥ १० ॥ पदार्थ - जं- जो । आहु-अनन्त तीर्थंकरादि ने कहा है। ओहं - ओघरूप । सलिलं-जल । अपारयंजिसका पार नहीं आता ऐसे। महासमुहं महा समुद्र को। भुयाहि-भुजाओं से तैरना । दुत्तरं दुस्तर है । व- इसी प्रकार संसार रूप समुद्र को पार करना कठिन है। अहे य णं च पुन । णं-वाक्यालंकारार्थक है। परिजाणाहिअतः साधु ज्ञ प्रज्ञा से संसार के स्वरूप को जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका परित्याग करे । से पंडिए - सत्य और असत्य के स्वरूप को जानने वाला वह पंडित । मुणी-मुनि । हु-निश्चय ही । अंतकडेत्ति-कर्मों का अन्त करने वाला । वुच्चई-कहा जाता है। 4 मूलार्थ–महासमुद्र की भांति संसार रूप समुद्र को पार करना दुष्कर है, हे शिष्य ! तू इस संसार के स्वरूप को ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। इस प्रकार त्याग करने वाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्तं करने वाला कहलाता है। 1 हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में समुद्र का उदाहण देकर संसार के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। समुद्र में अपरिमित जल है, अनेक नदियां आकर मिलती हैं। इसलिए उसे भुजाओं से तैर कर पार करना कठिन है उसी तरह यह संसार सागर भी सामान्य आत्माओं के लिए पार करना कठिन है। इस संसार सागर में आस्रव के द्वारा मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद कषाय और योग रूप जल आता रहता है इसलिए साधक को यह आदेश दिया गया है कि इस दुस्तर संसार सागर को पार करने के लिए तू इसके स्वरूप का परिज्ञान कर। अर्थात् संसार समुद्र में परिभ्रमण एवं उसे पार होने के स्वरूप का ज्ञान कर। आस्रव संसार परिभ्रमण का कारण है और संवर अर्थात्, आस्रव का त्याग संसार से पार होने का साधन है । अत: तूज्ञ परिज्ञा के द्वारा आस्रव के स्वरूप का ज्ञान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उसका त्याग कर। इस तरह तू आस्रव के स्वरूप को जानकर उसका सर्वथा त्याग कर देगा तो संसार सागर से पार हो जाएगा। क्योंकि, ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला साधक ही संसार समुद्र को उल्लंघ कर निर्वाण पद को प्राप्त करता है। इसलिए उसे संसार का अन्त करने वाला कहा गया है। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं- १. ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही मुक्ति का मार्ग है और, २. संसार अनादि होते हुए भी सान्त है, आत्मा सम्यक् साधना के द्वारा उसका अन्त करके निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं

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