Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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परिशिष्ट .
सागर-वर-गम्भीर आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज
प्रस्तुति- श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनि जी महाराज
जैन शासन में "आचार्य पद" एक शिरसि-शेखरायमाण स्थान पर शोभायमान रहा है। जैनाचार्यों को जब मणि-माला की उपमा से उपमित किया जाता है, तब आचार्य सम्राट् आराध्य स्वरूप गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज उस महिमाशालिनी मणिमाला में एक ऐसी सर्वाधिक व दीप्तिमान दिव्य-मणि के रूप में रूपायित हुए, जिसकी शुभ्र आभा से उस माला की न केवल शोभा-वृद्धि हुई, अपितु वह माला भी स्वयं गौरवान्वित हो उठी, मूल्यवान एवं प्राणवान हो गई।
श्रद्धास्पद जैनाचार्य श्री आत्माराम जी म० का व्यक्तित्व जहाँ अनन्त-असीम अन्तरिक्ष से भी अधिक विराट और व्यापक रहा है, वहाँ उनका कृतित्व अगाध-अपार अमृत सागर से भी नितान्त गहन एवं गम्भीर रहा है। यथार्थ में उनके महतो-महीयान् व्यक्तित्व और बहु आयामी कृतित्व को कतिपय पृष्ठ सीमा में शब्दायित कर पाना कथमपि संभव नहीं है। तथापि वर्णातीत व्यक्तित्व और वर्णनातीत कृतित्व को रेखांकित किया जा रहा है। । भारतवर्ष के उत्तर भारत में पंजाब प्रान्त के क्षितिज पर वह सहस्रकिरण दिनकर उदीयमान हुआ। वह मयूख-मालिनी मार्तण्ड सर्व-दिशा से प्रकाशमान है। वि० सं० 1939 भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, राहों ग्राम में, वह अनन्त ज्योति-पुंज अवतरित हुआ। आप श्री जी क्षत्रिय जातीय चौपड़ा -वंश के अवतंश थे। माता-पिता का क्रमशः नाम -श्री परमेश्वरी देवी और सेठ मन्शाराम जी था। यह निधूम ज्योति एक लघु ग्राम में आविर्भूत हुई। किन्तु उनकी प्रख्याति अन्तर्राष्ट्रीय रही, देशातीत एवं कालातीत रही। .
___ महामहिम आचार्यश्री जी के जीवन का उषः काल विकट-संकट के निर्जन वन में व्यतीत हुआ। दुष्कर्म के सुतीक्ष्ण प्रहारों ने आपश्री जी को नख-शिखान्त आक्रान्त कर दिया। दो वर्ष की अल्पायु में आपश्री जी की माता जी ने इस संसार से विदाई ली और जब आप अष्टवर्षीय रहे, तब पिता जी इस लोक से उस लोक की ओर प्रस्थित हुए। उस संकटापन्न समय में आपश्री जी को एकमात्र दादी जी की छत्रच्छाया प्राप्त हुई। किन्तु इस सघन वट की छत्रच्छाया दो वर्ष तक ही रही और दादी जी का भी देहावसान हो गया। इस रूप में आपश्री जी का बाल्य-काल व्यथाकथा से आपूरित रहा।
___यह ध्रुव सत्य है कि माता-पिता और दादी के सहसा, असहय वियोग ने पूज्यपाद आचार्यश्री जी के अन्तर्मन-विहग को संयम-साधना के निर्मल-गगन में उड्डयन हेतु उत्प्रेरित कर दिया। उन्होंने जागतिक-कारागृह से उन्मुक्ति का निर्णय लिया और अन्ततः द्वादश वर्ष की स्वल्प आयु में संवत् 1951 में पंचनद पंजाब के बनूड़ ग्राम में जिनशासन के तेजस्वी नक्षत्र स्वामी श्री शालिग्राम जी म० के चरणारविन्द में आर्हती-प्रव्रज्या अंगीकृत की। आप श्री जी के विद्या-गुरु आचार्य श्री मोतीराम जी म० थे। आप श्री ने दीक्षा-क्षण से ही त्रिविध संलक्ष्य निर्धारित किए-संयम साधना, ज्ञान-आराधना और शासन-सेवा। आप