Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 511
________________ ४७६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उद्दविज वा-प्राणों से रहित करने वाला होता है। तम्हा-इसलिए। आलोइयपाणभोयणभोई-जो देखकर आहार-पानी करता है। से-वह। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ है। नो अणालोइयपाणभोयणभोईति-न कि बिना देखे आहार, पानी करने वाला, इस प्रकार। पंचमा भावणा-यह पांचवीं भावना है। .. मूलार्थ-अब चौथी के बाद पांचवीं भावना को कहते हैं-जो विवेक पूर्वक देख कर आहार-पानी करता है वह निर्ग्रन्थ है और जो बिना देखे आहार-पानी करता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणी आदि जीवों की हिंसा करता है, उन्हें प्राणों से पृथक् करता है। इसलिए देखकर आहार-पानी करने वाला ही निर्ग्रन्थ होता है। यह पांचवीं भावना है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को बिना देखे खाने-पीने के पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। आहार को जाने के पूर्व मुनि को अपने पात्र भी भली-भांति देख लेने चाहिएं और उसके बाद प्रत्येक खाद्य एवं पेय पदार्थ सम्यक्तया देख कर ही ग्रहण करना चाहिए और उन्हें देख कर ही खाना-पीना चाहिए। बिना देखे पदार्थ लेने एवं खाने से जीवों की हिंसा होने एवं रोग आदि उत्पन्न होने की संभावना है। अतः साधु को इस में पूरा विवेक रखना चाहिए। ये पांचों भावनाएं प्रथम महाव्रत को शुद्ध एवं निर्दोष रखने के लिए आवश्यक हैं। इनके सम्यक् आराधन से साधक अपनी साधना में तेजस्विता ला सकता है। प्रथम महाव्रत का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- एतावता महव्वए सम्मं काएण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं॥ छाया- एतावता महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्तितम् अवस्थितं आज्ञया आराधितं चापि भवति, प्रथमे भदन्त ! महाव्रते प्राणातिपाताद् विरमणम्। पदार्थ- एतावता-इस प्रकार। महव्वए-प्रथम महाव्रत को। सम्म-सम्यक्तया। कायेण-काया से। फासिए-स्पर्शित किया। पालिए-पालन किया। तीरिए-पार पहुंचाया। किट्टिए-कीर्तन किया।अवट्ठिएअवस्थित रखा जाता है और।आणाए-उसका आज्ञा पूर्वक। आराहिए-आराधन किया। यावि भवइ-जाता है। च, पुनः और अपि-समुच्चय अर्थ में जानना।भंते-हे भगवन्। पढमे महव्वए-मैं प्रथम महाव्रत में।पाणाइवायाओप्राणातिपात से। वेरमणं-निवृत होता हूं अर्थात् प्रथम महाव्रत प्राणातिपात विरमण रूप है। मूलार्थ-साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात (हिंसा) के त्याग रूप प्रथम महाव्रत को इस प्रकार काया से स्पर्शित करके उसका पालन किया जाता है, उसे तीर पर पहुंचाया जाता है, उसका कीर्तन किया जाता है, उसे अवस्थित रखा जाता है और उसका आज्ञा के अनुरूप आराधन . किया जाता है। इस प्रकार प्रथम महाव्रत में साधु प्राणातिपात से निवृत्त होता है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि प्रत्येक साधना का महत्त्व उसका परिपालन करने में है। प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया आचरण करने से ही आत्मा का विकास हो

Loading...

Page Navigation
1 ... 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562