Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
अहावरा तच्चा भावणा-अथ अपर तीसरी भावना यह है। जीवे- जीव । घाणओ- घ्राण इन्द्रिय से । मणुन्नामणुन्नाई - मनोज्ञामनोज्ञ प्रिय और अप्रिय गंधाई - गंधों को । अग्घायइ-सूंघता है। मणुन्नामणुन्नेहिंमनोज्ञामनोज्ञ। गंधेहिं-गंधों में। नो सज्जिज्जा- आसक्त न हो। नो रज्जिज्जा- राग भाव न करे। जाव- यावत् । नो विणिघायमावज्जिज्जा-द्वेष से विनाश को प्राप्त न हो। केवली बूया - केवली भगवान कहते हैं। मणुन्नामणुन्नेहिंप्रिय तथा अप्रिय गंधेहिं-गंधों में सज्जमाणे- आसक्त होता हुआ। जाव - यावत् । विणिघायमावज्जमाणेविनिघात-विनाश को प्राप्त होता हुआ । संतिभेया- शांति रूप चारित्र का भेद करता है। जाव- यावत् । | भंसिज्जाधर्म से भ्रष्ट हो जाता है । नासाविसयमागयं नासिका के विषय को प्राप्त हुआ। गंधं गन्ध । न सक्का अग्घाउं - अगन्ध नहीं हो सकता अर्थात् नासिका के सन्निधान को प्राप्त हुआ गन्ध नासिका के छिद्रों में प्रविष्ट होता है किन्तु । तत्थ-उस में । जे - जो । रागदोसा-रागद्वेष उत्पन्न होता है। ते उसे । भिक्खू - साधु । परिवज्जए-त्याग दे अर्थात् उसमें राग-द्वेष न करे। घाणओ-घ्राणेन्द्रिय से । जीवो - जीव । मणुन्नामणुन्नाई गंधाई-प्रिय और अि गन्ध को। अग्घायइ-ग्रहण करता है, सूंघता है । त्ति- इस प्रकार यह । तच्चा भावणा-तीसरी भावना कही है। अहावरा चउत्था भावणा- अब यह चौथी भावना कही जाती है। जीवो - जीव । जिब्भाओ - जिव्हा से। मणुन्नामन्नाई - मनोज्ञामनोज्ञ-प्रिय तथा अप्रिय । रसाई-रसों का। अस्साएइ - आस्वादन करता है - स्वाद ता है किन्तु । मणुन्नामणुन्नेहिं प्रिय और अप्रिय । रसेहिं रसों में । नो सज्जिज्जा - आसक्त न हो। जावयावत् । विणिघायमावज्जिज्जा-विनिघात - विनाश को प्राप्त न होवे । केवली बूया - केवली भगवान कहते हैं। णं-वाक्यालंकार अर्थ में है। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ साधु । मणुन्नामणुन्नेहिं प्रिय तथा अप्रिय । रसेहिं रसों में । सज्जमाणेआसक्त होता हुआ। जाव-यावत् । विणिघायमावज्जमाणे- विनाश को प्राप्त होता हुआ । संतिभेया- शान्ति भेद। जाव- यावत्। भंसेज्जा-धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। जीहाविसयमागयं-जिव्हा के सन्निधान में आए हुए । रसं-रस के पुद्गल । न सक्कमस्साउं- अनास्वादित नहीं रह सकते अर्थात् जिव्हा के विषय को प्राप्त हुआ कोई रस ऐसा नहीं है कि जिसका आस्वादन न किया जा सके किन्तु । तत्थ-उस में । जे जो । रागदोसा-राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। ते-उनका। भिक्खू-भिक्षु साधु । परिवज्जए - परित्याग करे अर्थात् उनमें राग-द्वेष न करे। जीहाओजिव्हा से। जीवो - जीव | मणुन्नोमणुन्नाइं प्रिय और अप्रिय । रसाई- रसों का। अस्साएइ-आस्वादन करता है। त्ति - इस प्रकार यह । चउत्था भावणा - चतुर्थ भावना कही गई है।
अहावरा पंचमा भावणा- अब अन्य पांचवीं भावना को कहते हैं। जीवो - जीव । फासाओ-स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा । मणुन्नामणुन्नाई-प्रिय और अप्रिय । फासाई - स्पर्शो को । पडिसंवेएड़-अनुभव करता है अर्था स्पर्शेन्द्रिय से मृदु कर्कशादि स्पर्शो को अवगत करता है परन्तु वह जीव । मणुन्नामणुन्नेहिं - मनोज्ञामनोज्ञ । फासेहिंस्पर्शो में नो सज्जिज्जा - आसक्त न हो। जाव यावत् । नो विणिघायमावज्जिज्जा- विनाश को प्राप्त न होवे।' केवली बूया - केवली भगवान कहते हैं। णं-वाक्यालंकार अर्थ में है। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ। मणुन्नामणुन्नेहिं- प्रिय और अप्रिय । फासेहिं-स्पर्शों में। सज्जमाणे- आसक्त होता हुआ। जाव - यावत् । विणिघायमावज्जमाणे- विनाश
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