Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
५०१
पञ्चदश अध्ययन संदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर तटस्थ रहना चाहिए।
इसी तरह वायु के साथ पदार्थों में से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध के समय भी साधु को मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। सुवासित पदार्थों में राग भाव नहीं रखना चाहिए और न दुर्गन्ध मय पदार्थों पर द्वेष भाव। साधक को सदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए।
___ इसी प्रकार साधक को रसों में आसक्त नहीं होना चाहिए। स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट जैसा भी निर्दोष आहार प्राप्त हुआ हो उसे समभाव पूर्वक भोगना चाहिए। उसे सुस्वादु एवं रस युक्त आहार पर राग भाव नहीं रखना चाहिए और न नीरस आहार पर द्वेष। साधक को कभी भी स्वाद के वशीभूत नहीं होना चाहिए।
साधक को अनेक तरह के प्रिय-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श होते रहते हैं। परन्तु उसे किसी भी स्पर्श पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। न मनोज्ञ स्पर्श पर राग भाव रखना चाहिए और अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष भाव। यही साधक की साधना का वास्तविक स्वरूप है।
इस तरह साधक जब इन आदेशों को आचरण में उतारता है, उन्हें जीवन में साकार रूप देता है, तभी अपरिग्रह महाव्रत की आराधना कर पाता है।
- इस प्रकार इस अध्ययन में वर्णित ५ महाव्रत एवं २५ भावनाओं का सम्यक्तया परिपालन करने वाला साधक ही आराधक होता है और वह क्रमशः आत्मा का विकास करता हुआ कर्म बन्धनों से युक्त । होता हुआ, एक दिन अपने साध्य को पूर्णतया सिद्ध कर लेता है।
प्रस्तुत भावना अध्ययन में भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर के जीवन एवं साधना से संबद्ध होने के कारण प्रस्तुत अध्ययन में भावनाओं का उल्लेख किया गया है। ऐसे प्रश्र व्याकरण सूत्र के पांचवें संवर द्वार में भावनाओं का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। यहां केवल दिग्दर्शन कराया गया है। ... प्रस्तुत अध्ययन भगवान महावीर के जीवन एवं साधना से संबंधित होने के कारण प्रत्येक साधक के लिए मननीय एवं चिन्तनीय है। इससे साधक की साधना में तेजस्विता आएगी और उसे अपने पथ पर बढ़ने में बल मिलेगा। अतः प्रत्येक साधक को इसका गहराई से अध्ययन करके भगवान महावीर की साधना को जीवन में साकार रूप देने का प्रयत्न करना चाहिए। संक्षेप में महाव्रतों एवं उनकी भावनाओं का महत्व आचरण करने से है। उनका सम्यक्तया आचरण करके ही साधक सर्व प्रकार के कर्म-बन्धनों से मुक्त-उन्मुक्त हो सकता है।
पञ्चदश अध्ययन (तृतीया चूला) समाप्त।