Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 538
________________ ५०३ सोलहवां अध्ययन अपने प्रवचन में यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार में जीवों के उत्पन्न होने की जितनी भी योनिएं हैं, वे अनित्य हैं। क्योंकि अपने कृत कर्म के अनुसार जीव उन योनियों में जन्म ग्रहण करता है और अपने उस भव के आयु कर्म के समाप्त होते ही उस योनि के प्राप्त शरीर को छोड़ देता है। इस तरह समस्त योनियां कर्म जन्य हैं, इस कारण वे अनित्य हैं। जब तक जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है। तब तक वह अपने कृत कर्म के अनुसार एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करता रहता है। इससे योनि की अनित्यता स्पष्ट हो जाती है। परन्तु इससे उसके अस्तित्व का नाश नहीं होता इसलिए उसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि संसार अनित्य है, संसार में स्थित जीव एक योनि से दूसरी योनि में भटकता रहता है। इससे हम निःसंदेह कह सकते हैं कि संसार मिथ्या नहीं, अनित्य एवं परिवर्तन शील है। परन्तु इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि परिभ्रमण के कारण जीव के आत्म प्रदेशों में किसी तरह का अन्तर नहीं आता है। उसकी योनि की पर्याएं, शरीर आदि की पर्याएं एवं ज्ञान-दर्शन की पर्याएं परिवर्तित होती रहती हैं, परन्तु इन परिवर्तनों के कारण आत्म द्रव्य नहीं बदलता, उसके असंख्यात प्रदेशों में किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं आती है। इस तरह संसार की अनित्यता के स्वरूप को सुन कर और उस पर गहराई से चिन्तन मनन करके विद्वान एवं निर्भय व्यक्ति संसार से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। फिर वह पारिवारिक स्नेह बन्धन में बंधा नहीं रहता है। वह मृत्यु के समय जबरदस्ती टूटने वाले स्नेह बन्धन को स्वेच्छा से तोड़ देता है। वह अनासक्त भाव से पारिवारिक ममता का एवं सावध कर्मों का तथा समस्त परिग्रह का त्याग करके साधना के मार्ग पर कदम रख देता है। .. इस गाथा में आत्मा की द्रव्य रूप से नित्यता एवं योनि आदि पर्यायों या संसार की अनित्यता, अस्थिरता एवं परिवर्तनशीलता को स्पष्ट रूप से दिखाया गया है। और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि विद्वान एवं निर्भय व्यक्ति ही उसके यथार्थ रूप को समझ कर सांसारिक संबंधों एवं साधनों का परित्याग कर सकता है। अब पर्वत अधिकार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं। मूलम्- तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विन्नु चरंतमेसणं। तुदंति वायाहिं अभिद्दवं नरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं॥२॥ छाया- तथागतं भिक्षुमनंतसंयतं, अनीदृशं विज्ञः चरंतमेषणाम्। तुदन्ति वाग्भिः अभिद्रवन्तो नराः, शरैः संग्रामगतमिव कुंजरं॥२॥ पदार्थ- तहागयं-तथा भूत अनित्यादि भावनायुक्त। भिक्खुं-भिक्षु-साधु जो। अणंतसंजयंएकेन्द्रियादि जीवों में अर्थात् उनकी रक्षा में सदैव यत्नशील है।अणेलिसं-अनुपम संयमशील। विन्नु-विद्वान मुनि को जो। चरंतमेसणं-शुद्धाहार की गवेषणा करने वाला है। नरा-कोई अनार्य पुरुष।वायाहिं -असभ्य वचनों से। तुदन्ति-व्यथित करते हैं-व्यथा पहुंचाते हैं और।अभिद्दवं-लोष्टपाषाणादि से प्रहार करते हैं। व-जैसे। संगामगयंसंग्राम में गए हुए। कुंजरं-हस्ती को। सरेहि-शरों-बाणों से तोड़ते हैं। मूलार्थ-अनित्यादि भावनाओं से भावित, अनन्त जीवों की रक्षा करने वाले अनुपम

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