Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 512
________________ ४७७ पञ्चदश अध्ययन सकता है। जब तक वह जीवन में साकार रूप ग्रहण नहीं करता तब तक साधक की साधना में तेजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए साधक को चाहिए कि वह आगम में दिए गए आदेश के अनुसार प्रथम महाव्रत को आचरण में उतारकर जीवन पर्यन्त उसका परिपालन करे, उसका सम्यक्तया आराधन करे । अब द्वितीय महाव्रत का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - अहावरं दुच्चं महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं वइदोसं, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं भासिज्जा, नेवन्नेणं मुसं भासाविज्जा, अन्नंपि मुसं भासतं न समणुजाणिज्जा तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जाव वोसिरामि ॥ छाया - अथापरं द्वितीयं महाव्रतं प्रत्याख्यामि सर्वं मृषावादं वाग्दोषं सः क्रोधाद् वा लोभाद् वा भयाद् वा हासाद् वा नैव स्वयं मृषा भाषेत, नैवान्येन मृषां भाषयेत्, अन्यमपि मृषां भाषमाणं न समनुजानीयात् त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामि यावत् व्युत्सृजामि । पदार्थ - अहावरं- अब अन्य । दुच्चं - दूसरे । महव्वयं-महाव्रत को कहते हैं । सव्वं मुसावायं - सर्व प्रकार के मृषावाद । वइदोसं वाणी-वचन के दोषों का । पच्चक्खामि प्रत्याख्यान करता हूं अर्थात् ज्ञ प्रज्ञा से उन्हें जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से उनका प्रत्याख्यान करता हूं-त्याग करता हूं। से- वह साधु । कोहा वा क्रोध से । लोहा वा-लोभ से । भया वा-भय से । हासा वा हास्य से। एव निश्चयार्थक है। सयं स्वयं अपने आप | मुसं मृषाझूठ । न भासिज्जा- न बोले । अन्नेणं-दूसरों से। मुसं मृषा- झूठ । न भासाविज्जा- न बुलावे तथा । मुसं - मृषा । भासंतं - भाषण करते हुए । अन्नंपि अन्य व्यक्ति का । न समणुजाणिज्जा- अनुमोदन भी न करे । तिविहं-तीन करण और । तिविहेणं-तीन योग से। मणसा-मन से। वयसा वचन से। कायसा-काया से । भंते हे भगवन् मैं । तस्स - उस मृषा वाद रूपी पाप से। पडिक्कमामि पीछे हटता हूं। जाव - यावत् आत्म साक्षी से उसकी निन्दा और गुरुसाक्षी से गर्हणा करता हुआ। वोसिरामि - मृषावाद से अपने आत्मा को पृथक् करता हूं । मूलार्थ - इस द्वितीय महाव्रत में साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि भगवन् ! मैं आज से मृषावाद और सदोष वचन का सर्वथा परित्याग करता हूं। अतः साधु क्रोध से, लोभ से, भय से, और हास्य से न स्वयं झूठ बोलता है न अन्य व्यक्ति को असत्य बोलने की प्रेरणा देता है और न मृषा भाषण करने वालों का अनुमोदन करता है। इस तरह साधक तीन करण एवं तीन योग से मृषावाद का त्याग करके यह प्रतिज्ञा करता है कि हे भगवन् ! मैं मृषावाद से पीछे हटता हूं, आत्म साक्षी से उसकी निन्दा करता हूं और गुरु साक्षी से उसकी गर्हणा करता हूं और अपनी आत्मा को मृषावाद से सर्वथा पृथक् करता हूं । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दूसरे महाव्रत का वर्णन किया गया है। असत्य आत्मा के लिए पतन का कारण है। उससे आत्मा में अनेक दोष आते हैं और पाप कर्म का बन्ध होता है। इसलिए साधक

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