Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 525
________________ ४९० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्त्रियों की। मणोहराई २-मनोहर तथा मनोरम। इंदियाइं-इन्द्रियों को। आलोइत्तए-काम दृष्टि से अवलोकन तथा। निज्झाइत्तए-ध्यान या स्मरण करने वाला। नो सिया-न हो। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। णं-वाक्यालंकार में है। निग्गंथे-जो निर्ग्रन्थ। इत्थीणं-स्त्रियों की।मणोहराई २-मनोहर तथा मनोरम।इंदियाइंइन्द्रियों को।आलोएमाणे-देखता हुआ।निझाएमाणे-आसक्ति पूर्वक देखता हुआ विचरता है वह।संतिभेयाशांति रूप चारित्र का भेदन करता है और। संतिविभंगा-शांति रूप ब्रह्मचर्य का भंग करता हुआ। जाव-यावत्। धम्माओ-केवलि प्रज्ञप्त धर्म से भी। भंसिज्जा-भ्रष्ट हो जाता है अतः। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ-साधु। इत्थीणं-स्त्रियों की।मणोहराई २-मनोहर तथा मनोरम-मन को लुभाने वाली । इंदियाइं-इन्द्रियों को।आलोइत्तए-अवलोकन करने। निज्झाइत्तए-विशेष रूप से देखने या ध्यान करने की वृत्ति वाला। नो सिया-न बने। त्ति-इस प्रकार। दुच्चा भावणा-यह दूसरी भावना कही गई है। ____ अहावरा-अथ द्वितीय भावना से आगे अब। तच्चा भावणा-तीसरी भावना को कहते हैं। निग्गंथेनिर्ग्रन्थ-साधु। इत्थीणं-स्त्रियों की। पुव्वरयाई-पूर्व रति को।पुव्वकीलियाई-तथा पूर्व क्रीडा को।सुमरित्तएस्मरण करने वाला। नो सिया-न हो, क्योंकि। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। णं-प्राग्वत्। निग्गंथेनिर्ग्रन्थ। इत्थीणं-स्त्रियों की। पुव्वरयाई-पूर्व रति का। पुव्वकीलियाई-पूर्व क्रीडा का।सरमाणे-स्मरण करता हुआ। संतिभेया-शांति का भेदक। जाव-यावत्। भंसिजा-केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अतः। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ-साधु।इत्थीणं-स्त्रियों की। पुव्वरयाई-पूर्व रति और। पुव्वकीलियाई-पूर्व क्रीड़ा का।सरित्तएस्मरण करने वाला। नो सियत्ति-न बने इस प्रकार यह। तच्चा भावणा-चतुर्थ महाव्रत की तीसरी भावना कही गई है। अहावरा-अथ अपर। चउत्था भावणा-चौथी भावना को कहते हैं। नाइमत्तपाणभोयणभोई-जो साधु मात्रा-प्रमाण से अधिक आहार-पानी नहीं करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। न पणीयरसभोयणभोईजो प्रणीत रस-प्रकाम भोजन का उपभोग करने वाला नहीं है, अर्थात् सरस आहार नहीं करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है-साधु है। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं, कि यह कर्म बन्धन का हेतु है। अइमत्तपाणभोयणभोई-प्रमाण से अधिक आहार-पानी करने वाला।से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ-साधु।पणीयरसभोयणभोईप्रणीत रस युक्त भोजन करने वाला।संतिभेया-शान्ति रूप ब्रह्मचर्य व्रत का विघातक। जाव-यावत्।भंसिजाधर्म से भ्रष्ट हो जाता है अतः। नाइमत्तपाणभोयणभोई-जो प्रमाण से अधिक आहार-पानी करने वाला नहीं है। से-वह। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ है। नो पणीयरसभोयणभोई-जो प्रणीत रस युक्त भोजन को भोगने वाला भी नहीं है। से-वह। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ है। त्ति-इस प्रकार। चउत्था भावणा-यह चौथी भावना का स्वरूप कहा गया है। __अहावरा पंचमा भावणा-अब पांचवीं भावना को कहते हैं। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ साधु। इत्थी-स्त्री। पसु-पशु। पण्डग-पंडक-नपुंसक आदि से। संसत्ताइं-संसक्त-संयुक्त। सयणासणाई-शय्या आसनादि के। सेवित्तए-सेवन करने वाला।न सिया-न हो।केवली-केवली भगवान कहते हैं कि।इत्थिपसुपण्डगसंसत्ताइंस्त्री, पशु और नपुंसक आदि से युक्त। सयणासणाइं-शय्या-उपाश्रय आसनादि का। सेवेमाणे-सेवन करने वाला। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ। संतिभेया-शान्ति का भेदक अर्थात् ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला। जाव-यावत् धर्म से।

Loading...

Page Navigation
1 ... 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562