Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 521
________________ ४८६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसको अदत्तादान का दोष लगेगा। अतः जो बार-बार मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला होता है, वही इस व्रत की आराधना करने वाला होता है। पांचवीं भावना यह है कि जो साधक साधर्मियों से भी विचार पूर्वक मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करता है। वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचारे आज्ञा लेने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि साधर्मियों से भी विचार कर मर्यादा पूर्वक आज्ञा लेने वाला निर्ग्रन्थ ही तृतीय महाव्रत की आराधना कर सकता है। यदि वह उनसे विचार पूर्वक आज्ञा नहीं लेता है तो उसे अदत्तादान का दोष लगता है। इसलिए मुनि को सदा विचार पूर्वक ही आज्ञा लेनी चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में तृतीया महाव्रत की ५भावनाओं का उल्लेख किया गया है। पहले और दूसरे महाव्रत की तरह तीसरे महाव्रत की भी पांच भावनाएं होती हैं- १. साधु किसी भी आवश्यक एवं कल्पनीय वस्तु को बिना आज्ञा ग्रहण न करे। २. प्रत्येक वस्तु के ग्रहण करने को जाने के पूर्व गुरु की आज्ञा ग्रहण करना, ३. क्षेत्र और काल की मर्यादा को ध्यान में रखकर वस्तु ग्रहण करने जाना, ४. बार-बार आज्ञा ग्रहण करना और ५. साधर्मिक साधु की कोई वस्तु ग्रहण करनी हो तो उसकी (साधर्मिक की) आज्ञा लेना। इस तरह साधु को बिना आज्ञा के कोई भी पदार्थ नहीं ग्रहण करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु अपनी आवश्यकता के अनुसार कल्पनीय वस्तु की याचना कर सकता है। परन्तु, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने गुरु या साथ के बड़े साधु की आज्ञा लेकर ही उस वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाए। इसी तरह वस्तु ग्रहण करने को जाते समय क्षेत्र एवं काल का भी अवश्य ध्यान रखे। आहार, पानी, वस्त्र-पात्र आदि को ग्रहण करने के लिए अर्ध योजन से ऊपर न जाए। इस तरह जिस समय घरों में आहार-पानी का समय न हो, उस समय आहार-पानी के लिए नहीं जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधु का जितनी बार वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाना हो उतनी ही बार गुरु की आज्ञा लेकर जाना चाहिए और किसी अपने साथी मुनि की वस्तु ग्रहण करनी हो तो उसके लिए उसकी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। इस तरह जो विवेक पूर्वक वस्तु को ग्रहण करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके विपरीत आचरण को अदत्तादान कहा गया है। अतः मुनि को सदा विवेक पूर्वक सोच-विचार कर ही वस्तु ग्रहण करनी चाहिए। बिना आज्ञा के उसे कभी भी कोई पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। अब तृतीय महाव्रत का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- एतावताव तच्चे महव्वए सम्म जाव आणाए आराहिए यावि भवइ, तच्चं भंते महव्वयं। छाया- एतावता तृतीयं महाव्रत सम्यक् यावत् आज्ञया आराधितं चापि भवति तृतीयं भदन्त ! महाव्रतम्। पदार्थ- एतावता-इस प्रकार। तच्चे-तीसरे। महव्वए-महाव्रत का। सम्म-सम्यक्तयां। जावयावत्। आणाए-आज्ञापूर्वक।आराहिए यावि भवइ-आराधन किया जाता है। भंते-हे भगवन् ! मैं। तच्चं

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