Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 516
________________ पञ्चदश अध्ययन ४८१ भाषा का प्रयोग न होने पाए। यह भी स्पष्ट है कि क्रोध और लोभ के वश भी व्यक्ति झूठ बोल जाता है। उस समय उसे बोलने का विवेक नहीं रहता है। इसी तरह भय भी मनुष्य के विवेक को विलुप्त कर देता है। उससे छुटकारा पाने के लिए भी असत्य का सहारा ले लेता है। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त रहना चाहिए। उसे क्रोध, लोभ, एवं भय आदि विकारों से उन्मुक्त होकर विचरना चाहिए। हम देखते हैं कि हंसी-मजाक के वश भी लोग झूठ बोलते हैं। अतः साधक को इससे भी दूर रहना चाहिए। हंसी-मजाक से एक तो जीवन की गम्भीरता नष्ट होती है। दूसरे वह लोगों की दृष्टि में छिछला व्यक्ति प्रतीत होता है। स्वाध्याय एवं ध्यान का समय भी व्यर्थ ही नष्ट होता है और साथ में असत्य का भी प्रयोग हो जाता है। इसलिए साधक को हंसी-मजाक का परित्याग करके सदा आत्म साधना में संलग्न रहना चाहिए। . अब द्वितीय महाव्रत का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- एतावता दोच्चे महव्वए सम्मं काएण फासिए जाव आणाए आराहिए यावि भवइ, दुच्चे भंते! महव्वए०॥ छाया- एतावता द्वितीयं महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं यावत् आज्ञया आराधितं चापि भवति द्वितीयं भदन्त महाव्रतम्। पदार्थ- एतावता-इस प्रकार। दोच्चे महव्वए-द्वितीय महाव्रत को। सम्म-सम्यक् प्रकार से। काएण-काया से। फासिए-स्पर्शित कर। जाव-यावत्।आणाए-आज्ञा का।आराहिए-आराधक। भवइहोता है। भंते !-हे भगवन् ! दोच्चे-दूसरा। महव्वए-महाव्रत स्वीकार करता हूं। मूलार्थ-इस प्रकार दूसरे महाव्रत को सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शित कर यावत् आज्ञा पूर्वक आराधित करने से हे भदन्त ! यह दूसरा महाव्रत होता है। अर्थात् उक्त महाव्रत की सम्यक्तया अराधना होती है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि द्वितीय महाव्रत का महत्त्व उसके आराधन में है। आगम में दिए गए आदेश के अनुसार काया से उसका आचरण करना ही दूसरे महाव्रत का परिपालन करना है। अतः वचन के बताए गए समस्त दोषों का परित्याग करके दूसरे महाव्रत का पालन करने वाला साधक ही वास्तव में निर्ग्रन्थ एवं आराधक कहलाता है। अब सूत्रकार तीसरे महाव्रत के संबंध में कहते हैं मूलम्- अहावरं तच्चं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं अदिन्नादाणं, से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिण्हिज्जा, नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविजा, अदिन्नं अन्नपि गिण्हतं न समणुजाणिज्जा, जावजीवाए जाव वोसिरामि॥

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