Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 517
________________ ४८२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध छाया- अथापरं तृतीयं भदन्त ! महाव्रतं प्रत्याख्यामि सर्वम् अदत्तादानं तद् ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चित्तवद् वा अचित्तमद् वा नैव स्वयं अदत्तं गृह्णीयात् नैवान्यैः अदत्तं ग्राहयेत अदत्तं अन्यमपि गृह्णन्तं न समनुजानामि यावजीवं यावत् व्युत्सृजामि। पदार्थ-अहावरं-अथ अपर।भंते-हे भगवन्। तच्चं-तृतीय। महव्वयं-महाव्रत के विषय में।सव्वंसर्व प्रकार के।अदिन्नादाणं-अदत्तादान का। पच्चक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूं। से-वह। गामे वा-ग्राम में। नगरे वा-नगर में अथवा।रन्ने वा-अरण्य में।अप्पंवा-स्वल्प या। बहुं वा-बहुत या।अणुंवा-सूक्ष्म या।थूलं वा-स्थूल पदार्थ या। चित्तमंतं वा-सचित्त या। अचित्तमंतं वा-अचित्त पदार्थ। एव-निश्चयार्थक है। अदिन्नंकिसी के दिए बिना। सयं-स्वयं-अपने आप। न गिण्हिज्जा-ग्रहण नहीं करूंगा तथा। अन्नेहिं-औरों से। नेव गिण्हाविजा-ग्रहण नहीं कराऊंगा।अदिन्नं-अदत्त को।गिण्हतं-ग्रहण करने वाले।अन्नंपि-अन्य व्यक्ति को। न समणुजाणिज्जा-अनुमोदन नहीं करूंगा।जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त।जाव-यावत् ( शेष पाठ पूर्ववत् जानना )। वोसिरामि-अदत्तादान से अपने को पृथक् करता हूं। मूलार्थ-हे भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत के विषय में सर्व प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। वह अदत्तादान-चोरी से ग्रहण किया जाने वाला पदार्थ चाहे ग्राम में, नगर में अरण्य-अटवी में हो, स्वल्प हो, बहुत हो, स्थूल हो, एवं सचित अथवा अचित हो उसे न तो स्वयं ग्रहण करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करूंगा, मैं जीवन पर्यन्त के लिए इस महाव्रत को तीन करण और तीन योग से ग्रहण करता है। और इस अदत्तादान (चौर्य कर्म ) के पाप से मैं अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक करता हूं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में स्तेय (चौर्य कर्म) के त्याग का उल्लेख किया गया है। चोरी आत्मा को पतन की ओर ले जाती है। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति साधना में संलग्न होकर आत्म शान्ति को नहीं पा सकता। क्योंकि इससे मन सदा अनेक संकल्प-विकल्पों में उलझा रहता है। अतः साधक को कभी भी अदत्त ग्रहण नहीं करना चाहिए चाहे वह पदार्थ साधारण हो या मूल्यवान हो, छोटा हो या बड़ा हो, कैसा भी क्यों न हो, साधु को बिना आज्ञा के या बिना दिया हुआ कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। वह न स्वयं चोरी करे, न दूसरे व्यक्ति को चोरी करने के लिए कहे और न चोरी करने वाले का समर्थन ही करे। इस तरह वह सर्वथा इस पाप से निवृत्त होकर संयम में संलग्न रहे। इस महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीइ मिउग्गहजाई से निग्गंथे नो अणणुवीइ मिउग्गहजाई, केवली बूया-अणणुवीइमिउग्गहजाई निग्गंथे अदिनं गिण्हेजा, अणुवीइमिउग्गहजाई से निग्गंथे नो अणणुवीइमिउग्गहजाइत्तिं पढमा

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