Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मूलम् - पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा तस्स भन्ते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
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छाया - प्रथमं भदन्त ! महव्रतं प्रत्याख्यामि सर्व प्राणातिपातं तत् सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा नैव स्वयं प्राणातिपातं कुर्यात् करोमि ३ यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि ।
पदार्थ - भंते - हे भगवन् । पढमं मैं प्रथम । महव्वयं महाव्रत को । पच्चक्खामि ज्ञ प्रज्ञा से प्राणातिपात को अनिष्ट जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से उस का प्रत्याख्यान करता हूं । सव्वं सर्व प्रकार के । पाणाइवायंप्राणातिपात का त्याग करता हूं। से वह । सुहुमं वा सूक्ष्म जीव अथवा । बायरं वा - बादर-स्थूल जीव । तसं वात्रस या । थावरं वा-स्थावर जीव । वा समुच्चयार्थ में है। एवं निश्चय ही । सयं स्वयं अपने आप | पाणाइवायंप्राणातिपात - प्राणियों का वध । न करिज्जा ३ - नहीं करूंगा, न अन्य से वध कराऊंगा । वध करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। जावज्जीवाए - जीवन पर्यन्त । तिविहं-तिन करण । तिविहेणं-तीन योग जैसे कि । मणसा- मन से । वयसा - वचन से । कायसा - काया से । भन्ते - हे भगवन् ! तस्स उस पाप से। पडिक्कमामिनिवृति करता हूं । पीछे हटता हूं। निंदामि - आत्मा की साक्षी से उसकी निन्दा करता हूं । गरिहामि - गुरु की साक्षी से गर्हणा करता हूं। अप्पाणं- अपनी आत्मा को पाप से। वोसिरामि-पृथक् करता हूं।
मूलार्थ - हे भगवन् मैं प्रथम महाव्रत में प्राणातिपात से सर्वथा निवृत होता हूँ, मैं सूक्ष्म, बादर, त्रस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात - हनन करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और न उनका हनन करने वालों की अनुमोदना करूंगा । हे भगवन् ! मैं यावज्जीव अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिए तीन करण और तीन योग से मन से, वचन से और काया से इस पाप से प्रतिक्रमण करता हूँ, पीछे हटता हूँ, आत्म साक्षी से इस पाप की निन्दा करता हूँ और गुरू साक्षी से गर्हणा करता हूँ। तथा अपनी आत्मा को हिंसा के पाप से पृथक् करता हूँ।
हिन्दी विवेचन प्रस्तुत सूत्र में प्रथम महाव्रत का वर्णन किया गया है। इस महाव्रत को स्वीकार करते समय साधक गुरु के सामने हिंसा से सर्वथा निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह जीवन पर्यन्त के लिए सूक्ष्म या बादर (स्थूल), त्रस या स्थावर किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता, न अन्य प्राणी से हिंसा करवाता है और न हिंसा करने वाले प्राणी का अनुमोदन - समर्थन ही करता है ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'प्राणातिपात' का अर्थ है, प्राणों का नाश करना। क्योंकि, प्रत्येक प्राणी में स्थित आत्मा का अस्तित्व सदा काल बना रहता है। अतः प्राणी की हिंसा का अर्थ है, उसके प्राणों का नाश कर देना। और प्राणों की अपेक्षा से ही संसारी जीव को प्राणी कहा जाता है। क्योंकि, वह प्राणों को