Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पञ्चदश अध्ययन
४७३
करने वाला और जीवों का उपघातक है। जो अपने मन को पाप से हटाता है वह निर्ग्रन्थ है, यह दूसरी भावना है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में मन शुद्धि का वर्णन किया गया है। पहले महाव्रत को निर्दोष एवं शुद्ध बनाए रखने के लिए मन को शुद्ध रखना आवश्यक है। मन के बुरे संकल्प-विकल्पों से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और उसके कारण साधु की प्रवृत्ति में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। क्योंकि कर्म बन्ध का मुख्य आधार मन (परिणाम) है, क्रिया से कर्म वर्गणा के पुद्गल आते हैं, परन्तु उनका बन्ध परिणामों की शुद्धता एवं अशुद्धता या तीव्रता एवं मन्दता पर आधारित है । अन्य दार्शनिकों एवं विचारकों ने भी मन को बन्धन एवं मुक्ति का कारण माना है। बुरे मन से आत्मा पाप कर्मों का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करता है और शुभ संकल्प एवं मानसिक चिन्तन मनन से अशुभ कर्म बन्धनों को तोड़ कर आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ता है। अस्तु, साधक को सदा मानसिक संकल्प एवं चिन्तन को शुद्ध बनाए रखना चाहिए। क्योंकि, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति को विशुद्ध बनाए रखने के लिए मन के चिन्तन को विशेष शुद्ध बनाए रखना आवश्यक है। मानसिक चिन्तन जितना अधिक शुद्ध होगा, प्रवृति उतनी ही अधिक निर्दोष होगी।
अतः मानसिक चिन्तन की शुद्धता के बाद वचन शुद्धि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार तीसरी भावना के सम्बन्ध में कहते हैं
मूलम्- अंहावरा तच्चा भावणा-वइं परिजाणइ से निग्गंथे जा य वई पाविया सावजा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहप्पगारं वइं नो उच्चारिजा, जे वइं परिजाणइ से निग्गंथे, जा य वई अपावियति तच्चा भावणा॥३॥
___ छाया- अथापरा तृतीया भावना वाचं परिजानाति सः निर्ग्रन्थः या च वाक् पापिका सावद्या सक्रिया यावत् भूतोपघातिका तथाप्रकारां वाचं नो उच्चारयेत् यो वाचं परिजानाति स निर्ग्रन्थः या च वाक् अपापिकेति तृतीया भावना।
पदार्थ-अहावरा-अब दूसरी के बाद।तच्चा-तीसरी।भावणा-भावना को कहते हैं। वइं परिजाणइपापमय वचन को जो छोड़ता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है।जा य-और जो।वई-वाणी। पाविया-पाप युक्त है। सावजा-सावद्य है। सकिरिया-क्रिया युक्त। जाव-यावत्। भूओवघाइया-भूतों-जीवों का उपघात करने वाली है। तहप्पगारं-तथाप्रकार की।वई-वाणी-वचन का।नो उच्चारिजा-उच्चारण न करे।जे-जो।वई परिजाणइसदोष वाणी वचन को 'ज्ञ' प्रज्ञा से जान कर और 'प्रत्याख्यान' प्रज्ञा से त्याग करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। जाव-यावत्। वई-साधु की वाणी। अपावियत्ति-पाप से रहित हो इस प्रकार यह। तच्चा भावणा-तीसरी भावना है।
१ परिणामे बन्धो। २ मन एव कारणं बन्ध-मोक्षयोः।