Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पञ्चदश अध्ययन
४५१ तरह शक्रेन्द्र ने अपनी भक्ति एवं श्रद्धा को अभिव्यक्त किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि महान पुरुषों की सेवा के लिए मनुष्य तो क्या देव भी सदा उपस्थित रहते हैं।
___कुछ प्रतियों में 'मजावेइ' के पश्चात् 'गन्धकासाएहिं गायाइं लूहेइ लूहित्ता' पाठ भी उपलब्ध होता है और यह शुद्ध एवं प्रामाणिक प्रतीत होता है। इसी तरह 'मुल्लं सयसहस्सेणं तियडोलतित्तिएणं' के स्थान पर 'पलसयसहस्सेणं तिपलो लाभितएणं' पाठ भी उपलब्ध होता है।
इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सीया उवणीया जिणवरस्स, जरमरणविप्पमुक्कस्स ।
ओसत्तमल्लदामा , जलथलयदिव्वकुसुमेहिं॥१॥ सिवियाइ मझयारे, दिव्वं वररयणरूवचिंचइयं। . सीहासणं महरिहं, सपायपीढं जिणवरस्स॥२॥
आलइयमालमउडो , भासुरबुंदी वराभरणधारी।
खोमियवत्थनियत्थो, जस्स य मुल्लं सयसहस्सं॥३॥ • छद्रेण उ भत्तेणं, अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो।
लेसाहि.विसुझंतो, आरुहइ उत्तमं सीयं ॥४॥ सीहासणे निविट्ठो, सक्कीसाणा य दोहि पासेहिं। वीयंति चामराहिं, मणिरयणविचित्तदंडाहिं ॥५॥ पुट्विं उक्खित्ता माणुसेहिं, साहटु रोमकूवेहि। पच्छा वहंति देवा, सुरअसुरगरुलनागिंदा॥६॥ पुरओ सुरा वहति असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि। अवरे वहंति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे॥७॥ वणसंडं व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले। सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणयलं सुरगणेहिं॥८॥ सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवणं व चंपयवणं वा। सोहइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं॥९॥ वरपडहभेरिझल्लरिसंखसयसहस्सिएहिं तूरेहि। गगणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो॥१०॥ ततविततं घणझुसिरं आउजं चउव्विहं बहुविहीयं। वाइंति तत्थ देवा, बहूहिं आनट्टगसएहिं॥११॥