Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध किया गया है। अतः जिस मकान को बनाने में जैन साधु का लक्ष्य रखा गया हो उस मकान के पुरुषान्तर होने पर भी जैन साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि वह उसमें ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया (दोष) लगती है।
अब सावध क्रिया को अभिव्यक्त करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति, तं-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं अयमाउसो ! सावजकिरिया यावि भवइ ॥८४॥
छाया- इह खलु प्राचीनं वा ४ सन्त्येकका यावत् तत् श्रद्दधानैः तत् प्रतीयमानैः तद् रोचयमानैः बहून् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवनीपकान् प्रगण्य प्रगण्य समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि कृतानि भवंति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावद् भवनगृहाणि वा ये भयत्रातारः तथा प्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु, इयमायुष्मन् ! सावधक्रिया चापि भवति।
पदार्थ- इह-संसार में। खलु-निश्चय। पाईणं वा ४-पूर्वादि दिशाओं में। संतेगइया-कई एक श्रद्धालु गृहस्थ ऐसे हैं, जिन्होंने उपाश्रय के दान के फल को सुन रखा है। तं-उस फल के प्रति। सहहमाणेहिंश्रद्धा करने से। तं पत्तियमाणेहिं-उस पर प्रतीति करने से। तं रोयमाणेहिं-उस पर रुचि करने से। बहवे-बहुत से। समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे-श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण और वनीपकों को। पगणिय २गिन-गिनकर तथा उनको।समुहिस्स-उद्देश्य करके।अगारीहिं-गृहस्थों ने। तत्थ तत्थ-जहां-तहां।आगाराइंमकान। चेइयाई-बनाए। भवंति-हैं। तंजहा-जैसे कि। आएसणाणि वा-लोहकार शाला। जाव-यावत्। भवणगिहाणि वा-तल घर आदि । जे-जो।भयंतारो-पूज्य मुनिराज।तहप्पगाराणि-तथाप्रकार के।आएसणाणि वा-लोहकार शाला। जाव-यावत्।भवणगिहाणि-तलघर आदि उक्त। इयराइयरेहि-छोटे-बड़े। पाहुडेहिंभेंट स्वरूप दिए हुए उपाश्रयों में। उवागच्छंति-उतरते हैं तो। इयमाउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! यह।सावजकिरिया यावि भवइ-यह सावद्य क्रिया होती है।
मूलार्थ-इस संसार में बहुत पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालु गृहस्थ हैं जो उपाश्रय दान के फल पर श्रद्धा करने से, प्रीति करने से और रुचि करने से बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारियों का उद्देश्य रखकर लोहकार शालादि भवनों का निर्माण करते हैं अर्थात् उन्होंने बनाए हैं। जो मुनिराज तथाप्रकार के भेंटस्वरूप दिए गए छोटे-बड़े भवनों में उतरते हैं, तो हे आयुष्मन् शिष्य ! उनके लिए यह सावध क्रिया होती है।