Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
२१९ पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा-साधु अथवा साध्वी। समाणे वा-जंघादि बल से क्षीण होने के कारण किसी एक स्थान में रहता हुआ।वसमाणेवा-वस्ती में मास कल्पादि करके निवास करता हुआ।गामाणुगामं दूइजमाणे वा-ग्रामानुग्राम-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ जहां पर जाकर रहे वहां पर।पुव्वामेवपहले ही। पन्नस्स-प्रज्ञावान् साधुको योग्य है कि वह । उच्चारपासवणभूमि-उच्चार-मल-मूत्र त्यागने की भूमि को। पडिलेहिजा-अपनी दृष्टि से भली-भांति अवलोकन करे,क्योंकि।केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। आयाणमेयं-कि यह कर्म बन्धन का कारण है। क्योंकि। अपडिलेहियाए-बिना प्रतिलेखन की हुई। उच्चारपासवणभूमिए-मल-मूत्र परित्याग करने की भूमि में। से भिक्खू-वह भिक्षु कदाचित्। राओ वा-रात्रि में। वियाले वा-विकाल में। उच्चारपासवणं-मल-मूत्र को। परिट्ठवेमाणे-परठता हुआ।पयलिज वा २फिसल जाए या गिर पडे तो। तत्थ-वहां पर। पयलमाणे वा २-उसके फिसलने एवं गिरने से से-उसके हत्थं वा-हाथ। पायं वा-या पैर। जाव-यावत् अन्य कोई शरीर का अंग ही। लूसेज वा-टूट जाएगा या। पाणाणि वा-अन्य किसी त्रस प्राणी का।ववरोविज वा-विनाश हो जाएगा। अह भिक्खूणं-इस लिए साधु को। पु०तीर्थकरादि ने पहले ही उपदेश दिया है कि। जं-जो। पन्नस्स-प्रज्ञावान् साधु को चाहिए कि वह। पुव्वामेव-पहले ही। उ० भूमि-मल-मूत्र त्यागने की भूमि का। पडिलेहिज्जा-सम्यक्तया अवलोकन करे।
मूलार्थ-जो साधु या साध्वी जंघादि बल से क्षीण होने के कारण एक स्थान में स्थित हो, या उपाश्रय में मास कल्पादि से रहता हो या ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ उपाश्रय में आकर रहे तो उस बुद्धिमान साधु को चाहिए कि वह जिस स्थान में ठहरे, वहां पर पहले मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि को अच्छी तरह से देख ले। क्योंकि भगवान ने बिना देखी भूमि को कर्म बन्धन का कारण कहा है। बिना देखी हुई भूमि में कोई भी साधु या साध्वी रात्रि में अथवा विकाल में मल-मूत्रादि को परठता हुआ यदि कभी पैर फिसलने से गिर पड़े, तो उसके फिसलने या गिरने से उसके हाथ-पैर या शरीर के किसी अवयव को आघात पहुंचेगा या उसके गिरने से वहां स्थित अन्य किसी क्षुद्र जीव का विनाश हो जाएगा। यह सब कुछ संभव है, इसलिए तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले ही भिक्षुओं को यह आदेश दिया है कि साधु को उपाश्रय में निवास करने से पहले वहां मल-मूत्र त्यागने की भूमि की अवश्य ही प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए।
हिन्दी विवेचन-इस सूत्र में साधु को यह आदेश दिया गया है कि वह जिस मकान में स्थानापति रहना चाहे या मास एवं वर्षावास कल्प के लिए ठहरे या विहार करते हुए कुछ समय के लिए ठहरे, तो उसे उस मकान में मल-मूत्र त्याग करने की भूमि अवश्य देख लेनी चाहिए। क्योंकि, यदि वह दिन में उक्त भूमि की प्रतिलेखना नहीं करेगा तो सम्भव है कि रात्रि के समय भूमि की विषमता आदि का ज्ञान न होने से उसका पैर फिसल जाए और परिणामस्वरूप उसके हाथ-पैर में चोट आ जाए और उसके शरीर के नीचे दब कर छोटे-मोटे जीव-जन्तु भी मर जाएं। इस लिए भगवान ने सबसे पहले मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन करना जरुरी बताया है और बिना देखी भूमि में मल-मूत्र का त्याग करने की प्रवृत्ति को कर्म बन्ध का कारण बताया है।
अब संस्तारक भूमि का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं.. मूलम् - से भिक्खू वा २ अभिकं खिजा सिज्जासंथारगभूमि