Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३४४
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसे एक ही पात्र रखना चाहिए। वृत्तिकार ने प्रस्तुत पाठ को जिनकल्प से सम्बद्ध माना है। क्योंकि, स्थविरकल्प साधु के लिए तीन पात्र रखने का विधान है। हां, अभिग्रहनिष्ठ साधु अपनी शक्ति के अनुरूप अभिग्रह धारण कर सकता है।
___ इसमें यह भी बताया गया है कि साधु पात्र ग्रहण करने के लिए आधे योजन से ऊपर न जाए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु जिस स्थान में ठहरा हुआ हो उस समय वह पात्र लेने के लिए आधे योजन से ऊपर जाने का संकल्प न करे। परन्तु, विहार के समय के लिए यह प्रतिबन्ध नहीं है।
आहार, वस्त्र आदि की तरह साधु-साध्वी को वह पात्र भी ग्रहण नहीं करना चाहिए जो उनके लिए बनाया गया है। साधु को आधा-कर्म आदि दोषों से रहित पात्र को स्वीकार करना चाहिए।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त।
१ तत्र च यः स्थिरसंहननाधपेतः स एकमेव पात्रं बिभूयात् न च द्वितीयं, सच जिनकल्पिकादिः, इतरस्तुमात्रकसद्वितीयं पात्रं धारयेत्, तत्र संघाटके सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानकं मात्रकं त्वाचार्यादिप्रायोग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति। -श्री आचाराङ्ग वृत्ति।