Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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नवम अध्ययन
३७९ हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में स्वाध्याय के स्थान एवं स्वाध्याय के समय चित्तवृत्ति को संयत रखने का वर्णन किया गया है। यह हम देख चुके हैं कि आत्मा को सर्व बन्धनों से मुक्त करने के लिए कायोत्सर्ग एक महान् साधन है। परन्तु, उस साधन को स्वीकार करने के लिए आत्मा एवं शरीर के स्वरूप तथा सम्बन्ध को जानना भी आवश्यक है और उसके लिए सर्वोत्तम साधन स्वाध्याय है। स्वाध्याय शब्द स्व+अध्याय के संयोग से बना है। स्व का अर्थ आत्मा और अध्याय का अर्थ है अध्ययन या बोध करना। अत: स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपनी आत्मा का अध्ययन करना या आत्मा के स्वरूप को पहचानना। अस्त. जो ज्ञान. जो चिन्तन-मनन आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने में सहायक होता है. उसे स्वाध्याय कहते हैं। .
यह स्पष्ट है कि चिन्तन के लिए एकान्त एवं निर्दोष स्थान चाहिए। क्योंकि यदि स्थान सदोष है, उसमें कई प्राणियों को पीड़ा पहुंचने की संभावना है तो चित्तवृत्ति शान्त नहीं रह सकती। जहां दूसरे प्राणियों को कष्ट होता हो वहां आत्मा पूर्ण शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता है। इसलिए हिंसा को शान्ति के लिए बाधक माना गया है। और साधक को उससे सर्वथा बचकर रहने का आदेश दिया गया है। हिंसा की तरह बाह्य कोलाहल भी मन को एकाग्र नहीं रहने देता। इस लिए तत्त्ववेत्ताओं ने साधक को निर्दोष एवं शान्त एकान्त स्थान में स्वाध्याय करने का आदेश दिया है।
एकान्तता जैसे योगों का निरोध करने के लिए सहायक है, वैसे भोगों की वृत्ति को उच्छृखल बनाने में भी उसका सहयोग रहता है। योगी और भोगी, वैरागी और रागी दोनों को एकान्त स्थान की आवश्यकता रहती है। एकान्त स्थान में ही मन साधना की ओर भली-भांति प्रवृत्त हो सकता है और विषय विकारों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए भी मनुष्य एकांत स्थान ढूंढता है। क्योंकि लोगों के सामने उसे अपनी वासना को तृप्त करने में लज्जा अनुभव होती है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र में साधक को यह क्षा दी गई है कि वह उस एकांत-शांत स्थान का उपयोग मोह कर्म को बढ़ाने में न करे। उसे अपने साथी साधकों के साथ पारस्परिक शारीरिक एवं मुख आदि का आलिंगन आदि कुचेष्टाएं नहीं करनी चाहिएं। और न अपने नाखून एवं दान्तों से किसी के शरीर का स्पर्श करना चाहिए जिससे कि वासना की जागृति हो। साधु को उस एकांत स्थान में योगों की प्रवृत्ति को उच्छृखल बनाने की चेष्टा न करते हुए योगों को अन्य समस्त प्रवृत्तियों से हटा कर आत्मा की ओर मोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन विद्यार्थी मुनियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
__इससे यह स्पष्ट होता है कि साधक को अपने योगों को अन्य प्रवृत्तियों से हटाकर आत्म साधना की ओर लगाना चाहिए, और इसके लिए उसे सर्वथा निर्दोष, प्रासुक एवं शान्त-एकान्त स्थान में स्वाध्याय करना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें।
॥ नवम अध्ययन समाप्त।