Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध आसाढसुद्धस्स-आषाढ़ शुक्ल पक्ष की। छट्ठीपक्खेणं-छठी रात्रि में। हत्थुतराहिं नक्खत्तेणं-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ। जोगमुवागएणं-चन्द्रमा का योग आ जाने पर अर्थात् उत्तरा फाल्गुनी में चन्द्रमा के आ जाने पर। महाविजयसिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुण्डरीयदिसासोवत्थियवद्धमाणाओ-महाविजय सिद्धार्थ, पुष्पोत्तर प्रधान, पुंडरीक-कमलवत् श्वेत, दिक्, स्वस्तिक, वर्द्धमान नाम वाले। महाविमाणाओ-महा विमान से।वीससागरोवमाइंबीस सागरोपम की। आउयं-आयु को। पालइत्ता पूर्ण कर के। आउक्खएणं-देवायु को क्षय करके। ठिइक्खएणं-वैक्रिय शरीर की स्थिति का क्षय करके। भवक्खएणं- और देवगति नाम कर्म का क्षय करके अर्थात् देव भव को समाप्त करके। चुए-वहां से च्यवे। चइत्ता-च्यवकर। खलु-निश्चयार्थक है। इह-इस। जंबुद्दीवेदीवे-जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में। भारहे वासे-भारत वर्ष के भरत क्षेत्र के। दाहिणड्ढभरहे-दक्षिणार्द्ध भरत खण्ड में।दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंमि-दक्षिण दिशा में ब्राह्मण कुंडपुर सन्निवेश में। कोडालगोत्तस्सकोडाल गोत्री। उसभदत्तस्स-ऋषभ दत्त। माहणस्स-ब्राह्मण की। जालंधरस्सगुत्ताए-जालन्धर गोत्रवली। देवानन्दाए-देवानन्दा। माहणीए-ब्राह्मणी की। कुच्छिंसि-कुक्षी में। सीहुब्भवभूएणं-सिंह की तरह अर्थात् गुफा में प्रवेश करते हुए सिंह की भांति।अप्पाणेणं-अपनी आत्मा से। गब्भं वक्कंते-गर्भपने उत्पन्न हुए अर्थात् गर्भ में आए।
मूलार्थ-श्रमण भगवान् महावीर इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक, सुषम-दुषम आरक के व्यतीत होने पर और दुषम-सुषम आरक के बहु व्यतिक्रान्त होने पर, केवल ७५ वर्ष, साढ़े आठ मास शेष रहने पर ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष आसाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्री को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, महाविजय सिद्धार्थ, पुष्पोत्तर वर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक, वर्द्धमान नाम के महाविमान से बीस सागरोपम की आयु को पूरी करके देवायु, देवस्थिति और देव भव का क्षय करके, इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध भारत के दक्षिण ब्राह्मण कुन्ड पुर सन्निवेश में कुडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालन्धरगोत्रीय देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ में उत्पन्न हुए।
हिन्दी विवेचन- इस सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के ७५ वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में आए। यहां काल चक्र के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख किया गया है। यह हम देखते हैं कि काल (समय) सदा अपनी गति से चलता है। और समय के साथ इस क्षेत्र में (भरत क्षेत्र में) परिस्थितियों एवं प्रकृति में भी कुछ परिवर्तन आता है। कभी प्रकृति में विकास होता है, तो कभी ह्रास होता है। जिस काल में प्रकृति उत्थान से ह्रास की ओर गतिशील होती है उस काल को अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिसमें प्रकृति ह्रास से उन्नति की ओर बढ़ती है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। प्रत्येक काल चक्र ६ आरक में विभक्त है और १० कोटा-कोटी (१० करोड़ x १० करोड़) सागरोपम का होता है। इस तरह पूरा काल चक्र २० कोटा-कोटी सागरोपम का होता है। भगवान महावीर अवसर्पिणी काल चक्र के चौथे आरे के-जो ४२ हजार वर्ष कम एक कोटा-कोटी सागर का है, ७५ वर्ष ८॥ महीने शेष रहने पर प्राण नामक १० वें स्वर्ग