Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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- श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मक्खिज वा-मसले या।अब्भंगिज वा-चोपड़े। तं नो सायए-उस क्रिया को मन से न चाहे। तं नो नियमेवाणी और शरीर से न कराए। सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। से-उस के-साधु के। कार्य-शरीर को। लुद्धण वा ४- लोध्रादि से। उल्लोढिज वा-उद्वर्तन करे या। उव्वल्लिज वा-संसृष्ट करे तो। तं नो सायए- उस क्रिया को साधु न तो मन से चाहे। तं नो नियमे-और न वचन तथा शरीर से कराए॥ सिया-कदाचित्। परोगृहस्थ। से-उस साधु की। कार्य-काया-शरीर को। सीओ०-शीतल निर्मल जल से या। उसिणो०-उष्ण जल से। उच्छोलिज वा-उत्क्षालन करे-छीटें दे। प०-अथवा धोए तो। तं नो सायए-उस क्रिया को साधु न तो मन से चाहे। तं नो नियमे-और न वाणी और शरीर से कराए। सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। से-उस साधु की। काय-काया को। अन्नयरेण-अन्य किसी। विलेवणजाएण-विलेपन से। आलिंपिज वा-आलेपन करे। विलिंपिज्ज वा-या विलेपित करे तो। तं नो सायए नो नियमे-उसको साधु न तो मन से चाहे और न वचन तथा काया से कराए॥सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। से-उस साधु के। कायं-शरीर को। अन्नयरेण-अन्य किसी। धूवणजाएण-धूप से। धूविज वा-धूपित करे। पधूविज वा-या प्रधूपित करे तो। तं नो सायए-उस क्रिया को मन से न चाहे तथा। तं नो नियमे-उस क्रिया को शरीर और वाणी से न कारए॥
सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। से-उस साधु के। कार्यसि-शरीर पर हुए। वणं-व्रण-फोड़े को देखकर।आमजिज वा २ -वस्त्र से थोड़ा सा पोंछे या बार-बार पोंछे तो साधु। तं नो सायए-उस क्रिया को मन से न चाहे। तं नो नियमे-तथा वाणी और शरीर से उक्त क्रिया को न कराए। सिया-कदाचित् । से-उस साधु के। कायंसि-शरीर गत।वणं-व्रण को देखकर। परो-अन्य गृहस्थ।संवाहिज वा-उसका संवाहन करे या। पलि०सर्व प्रकार से मर्दन करे तो साधु गृहस्थ की।तं-उस क्रिया को।नो सायए-मन से न तो चाहे तथा। नो तं नियमेन उसको वचन और काया से कराए॥ सिया-कदाचित्।से-उस साधु के। कायंसि-शरीर में होने वाले।वणंव्रण को देख कर। परो-गृहस्थ उसे। तिल्लेण वा-तैल से। घ०-अथवा घृत से या। वसाए- सुगन्धित द्रव्य से। मक्खिज वा-मसले। अब्भ-अथवा चोपड़े तो। तं-उस क्रिया को साधु मन सें। नो सायए-न चाहे। तं नो नियमे-तथा वचन और काया से न कराए। सिया-कदाचित्। से-उस साधु के। कार्यसि-काया में होने वाले। वणं-व्रण को देख कर। परो-गृहस्थालुद्धेण वा ४- लोधादि से। उल्लोढिज वा-उद्वर्तन करे। उव्वल्लेग्ज वा-अथवा संसृष्ट करे तो साधु गृहस्थ की। तं-इस क्रिया को।नो सायए-न तो मन से चाहे और।तं नो नियमेन उसको वचन तथा काया से कराए। सिया-कदाचित्। से-उस साधु के। कार्यसि-शरीर में हुए। वणं-व्रण को देखकर। परो-गृहस्थ। सीओ० उ०-शीतल निर्मल जल से या उष्ण जल से। उच्छोलिज्ज वा-उत्क्षालन करे या धोए तो।तं-उस क्रिया को।नो सायए०२- न तो मन से चाहे, न वचन से कहे और न काया से कराए। सियाकदाचित्। से-उस साधु के। कायंसि-शरीर में हुए। वणं-व्रण को देख कर। गंडं वा-अथवा विशेष जाति के व्रण को देखकर। परो-गृहस्थ तथा। अरइं वा-अरति-व्रण विशेष। पुलइथं वा-पुलक व्रण विशेष अथवा। भगंदलं वा-भगन्दर नाम के व्रण विशेष को देख कर उसे।अच्छिंदिज वा-थोड़ा सा छेदन करे। विच्छिंदिज वा-विशेष रूप से छेदन करे तो।तं-गृहस्थ की इस क्रिया को साधु।नो सायए-न तो मन से चाहे। तं नो नियमेन वाणी से कहे और न काया से कराए। सिया-कदाचित्। से-साधु के। कायंसि-शरीर गत। वणं-व्रण आदि