Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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त्रयोदश अध्ययन श्रेय इदं मन्येत। इति ब्रवीमि।
पदार्थ-से-उस साधु की। सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ।सुद्धेणं-शुद्ध।असुद्धेणं-या अशुद्ध। वइबलेणं-मंत्रादि के बल से। तेइच्छं-चिकित्सा।आउट्टे- करनी चाहे। से-उस साधु की। सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। असुद्धेणं-अशुद्ध। वइबलेणं-मंत्रादि के बल से। तेइच्छं-चिकित्सा। आउट्टे-करनी चाहे। से-उस साधु को। सिया-कदाचित्। परो-गृहस्थ। गिलाणस्स-रोगी जान कर। सचित्ताणि वा-सचित्त। कंदाणि वा-कन्द या। मूलाणि वा-मूल। तयाणि वा-त्वचा-वृक्ष की छाल या। हरियाणि वा-हरि-वनस्पति काय को।खनित्तु-खोद करके। कड्ढित्तु-निकाल कर या। कड्ढावित्तु-निकलवा कर। तेइच्छं-चिकित्सा।
आउट्टाविज वा-करनी चाहे तो साधु । तं-उस क्रिया को। नो सायए-मन से न चाहे तथा। तं-उसको। नो नियम-वाणी से और शरीर से न कराए किन्तु मुनि यह भावना भावे कि।कडुवेयणा-यह जीव अशुभ कर्म का उपार्जन करके उसके फल स्वरूप कटुक वेदना का अनुभव करता है और सभी। पाणभूयजीवसत्ता-प्राणी, भूत, जीव और सत्व अपने किए हुए अशुभ कर्म के अनुसार।वेयणं-वेदना का।वेइंति-अनुभव करते हैं। इस प्रकार की विचारणा से उत्पन्न हुए रोगपरीषह की वेदना को समभाव से सहन करे। एयं-इस प्रकार। खलु-निश्चय ही। तस्स-उस। भिक्खुस्स २-साधु और साध्वी का यह। सामग्गियं-सम्पूर्ण आचार है। जाव-यावत्। समिएपांच समितियों से युक्त साधु। सया-सदा इसके पालन करने में। जएजासि-यत्न करे और। सेयमिणं-यह अनुप्रेक्षा मेरे लिए कल्याण प्रद है।मन्निजासि-ऐसा माने।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-यदि कोई सद्गृहस्थ शुद्ध अथवा अशुद्ध मंत्रबल से साधु की चिकित्सा करनी चाहे, इसी प्रकार किसी रोगी साधु को कन्द-मूल आदि सचित्त वृक्ष, छाल और हरी वनस्पति का अवहनन करके चिकित्सा करनी चाहे तो साधु उसकी इस क्रिया को न तो मन से चाहे और न वाणी तथा शरीर से ऐसी सावध चिकित्सा कराए। किन्तु उस समय इस अनुप्रेक्षा से आत्मा को सान्त्वना देने का यत्न करे कि प्रत्येक प्राणी अपने पूर्व जन्म के किए हुए अशुभ कर्मों के फलस्वरूप कटुक वेदना का उपभोग करते हैं। अतः मुझे भी स्वकृत अशुभकर्म के फलस्वरूप इस रोग जन्य वेदना को शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। मेरे लिए यही कल्याणकारी है और इस प्रकार का चिन्तन करते हुए समभाव से वेदना को सहन करने में ही मुनि भाव का संरक्षण है। इस प्रकार मैं कहता हूँ।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ शुद्ध या अशुद्ध मंत्र से या सचित्त वस्तुओं से चिकित्सा करे तो साधु उसकी अभिलाषा न रखे और न उसके लिए वाणी एवं शरीर से आज्ञा दे। जिस मंत्र आदि की साधना या प्रयोग के लिए पशु-पंक्षी की हिंसा आदि। सावध क्रिया करनी पड़े उसे अशुद्ध मंत्र कहते हैं। और जिसकी साधना एवं प्रयोग के लिए सावध अनुष्ठान न करना पड़े उसे शुद्ध मंत्र कहते हैं, परन्तु साधु उभय प्रकार की मंत्र चिकित्सा न करे और न अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए सचित्त औषधियों का ही उपयोग करे। वह प्रत्येक स्थिति में अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करे। वेदनीय कर्म के उदय से उदित हुए रोगों को समभाव पूर्वक सहन करे। वह यह सोचे कि पूर्व में बन्धे हुए अशुभ कर्म के उदय से रोग ने मुझे आकर घेर लिया है। इस वेदना का कर्ता मैं ही हूँ। जैसे मैंने