Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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॥ सप्तसप्तिकाख्या द्वितीय चूला- अन्योन्यक्रिया॥
चतुर्दश अध्ययन (पारस्परिक क्रिया)
त्रयोदशवें अध्ययन में पर क्रिया का निषेध किया गया है और प्रस्तुत अध्ययन में स्थविर कल्पी साधुओं को पारस्परिक क्रिया करने का निषेध किया गया है। जिनकल्पी एवं प्रतिमा संपन्न मुनि एकाकी विचरते हैं, इसलिए यह अध्ययन उनसे संबद्ध नहीं है। क्योंकि उन्हें औषध आदि की आवश्यकता ही नहीं होती है। इसलिए इसका संबंध स्थविर कल्पी मुनियों से है और उन्हें परस्पर औषध आदि क्रियाओं के प्रयोग करने का निषेध किया गया है। परन्तु किसी की सेवा शुश्रूषा एवं वैयावृत्य के लिए की जाने वाली क्रिया के लिए निषेध नहीं किया है। सामान्यतः सूत्रकार का उद्देश्य साधु को स्वावलम्बी बनाने का है। उसके जीवन में आलस्य एवं प्रमाद न आए और वह आराम तलब होकर दूसरों पर आधारित न रहे, इस दृष्टि से ही पारस्परिक क्रिया करने का निषेध किया है। इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- .
मूलम्- से भिक्खू वा २ अन्नमन्नकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए० २। से अन्नमन्नं पाए आमज्जिज्ज वा नो तं, सेसं तं चेव एयं खलु. जइज्जासि, त्तिबेमि॥१७४॥
छाया- स भिक्षुर्वा २ अन्योन्यक्रियां आध्यात्मिकी सांश्लेषिकी नो तामास्वादयेत् नो तां नियमयेत्। सः अन्योऽन्यः पादौ आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा नो तामास्वादयेत् नो तां नियमयेत्। शेषं तच्चैव, एतत् खलु तस्य भिक्षोः सामग्र्यं यत् सर्वार्थैः यावत् सदा यतेत इति ब्रवीमि॥
पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा २-साधु अथवा साध्वी। अन्नमन्नकिरियं-परस्पर सम्बन्धि क्रिया जो कि। अज्झत्थियं-आध्यात्मिकी-अपने आत्मा के विषय में की हुई। संसेसियं-सांश्लेषिकी-पाप कर्म को उत्पन्न करने वाली है। तं-उस क्रिया को। नो सायए-मन से न चाहे। तं-उस क्रिया को। नो नियमे-वचन से न कहे, और काया से न कराए जैसे कि। से-वह साधु। अन्नमन्नं-परस्पर। पाए-चरणों को। आमज्जिज वाथोड़ा सा मसले। पमजिज वा-अथवा विशेष रूप से मसले तो। तं-उस क्रिया को। नो सायए-मन से न चाहे। तं नो नियमे-तथा उस क्रिया को वचन और काया से न कराए। सेसं-शेष वर्णन। तं चेव-पूर्ववत् ही जानना चाहिए। खलु-निश्चय में है। एवं-यह। तस्स भिक्खुस्स २-उस साधु और साध्वी का। सामग्गियं-सम्पूर्ण आचार है। जं.-जो कि।सव्वठेहिं-ज्ञानदर्शन और चारित्र रूप अर्थों से युक्त है। जाव-यावत्। सया-वह सदा इस का पालन करने का। जइजासि-यत्न करे।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं।