Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध चौथे अभिग्रह में साधक अपनी कायोत्सर्ग साधना की चरम-सीमा पर पहुंच जाता है। वह सीमित काल के लिए बिना किसी सहारे के एवं बिना हाथ-पैर आदि का संचालन किए अचित्त भूमि पर स्थिर मन से खड़ा रहता है। वह इस क्रिया के समय अपने शरीर से सर्वथा ममत्व हटा लेता है। यदि कोई डंस-मंस उसे काटता है या कोई अज्ञानी व्यक्ति उसके बाल, दाढ़ी, नख आदि उखाड़ता है या उसे किसी तरह का कष्ट देता है, तब भी वह अपने कायोत्सर्ग से, आत्म चिन्तन से विचलित नहीं होता है। उस समय उसके योग आत्म-चिन्तन में इतने संलग्न हो जाते हैं कि उसे अपने शरीर पर होने वाली क्रियाओं का पता भी नहीं चलता है। वह उस समय अपने ध्यान को, चिन्तन को, अध्यवसाय को बाहर से हटा कर आत्मा के अन्दर केन्द्रित कर लेता है। अतः उस समय उसकी समस्त साधना आत्म-हित के लिए होती है और निश्चय दृष्टि से उतने समय के लिए वह एक तरह से संसार से मुक्त होकर आत्म सुखों में रमण करने लगता है और अनन्त आत्म आनन्द का अनुभव करने लगता है।
___प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'संनिरुद्धं' और 'वोसट्ठकाए' दो पद योग साधना के मूल हैं, जिनके आधार पर उत्तर काल में अनेक योग ग्रन्थों का निर्माण हुआ है।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए।
॥ अष्टम अध्ययन समाप्त।