Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
आदि का संचालन एवं बैठने, उठने तथा खड़े होने आदि की क्रियाएं करूंगा। पढमा पडिमा-यह पहली प्रतिमा का स्वरूप है। अहावरा-इसके अतिरिक्त अन्य। दुच्चा पडिमा-दूसरी प्रतिमा के सम्बन्ध में कहते हैं। अचित्तं खलु-अचित्त स्थान में। उवसजेजा-आश्रय लूंगा और।अवलंबिज्जा-भीत आदि का अवलम्बन करूंगा तथा। काएण-काया से। विप्परिकम्माइ-हाथ-पैर आदि का संकोचन प्रसारण करूंगा किन्तु। नो वियारं-पैरों से संक्रमणादि नहीं करूंगा अर्थात् भ्रमण नहीं करूंगा, इस प्रकार। ठाणं ठाइस्सामि-स्थान में ठहरूंगा या खड़ा रहूंगा।दुच्चा पडिमा-यह दूसरी प्रतिमा का स्वरूप है। अहावरा-अब इससे भिन्न।तच्चा पडिमा-तीसरी प्रतिमा यह है। खलु-पूर्ववत्। अचित्तं-अचित स्थान का। उवसज्जेज्जा-आश्रय लूंगा और।अवलंबिज्जा-अचित भीत आदि का सहारा लूंगा किन्तु। काएण-काया से। नो विपरिकम्माइ-संकोचन प्रसारण आदि क्रियाएं नहीं करूंगा।नो सवियारं-न पैर आदि से भूमि का संक्रमण करूंगा, इस प्रकार।ठाणंठाइस्सामि-स्थान में ठहरूंगा। इति-यह। तच्चा पडिमा-तीसरी प्रतिमा कही है। अहावरा चउत्थी पडिमा-अब चौथी प्रतिमा कहते हैं। अचित्तं खलु-अचित स्थान पर। उवसजेजा-खड़े होकर कायोत्सर्गादि करूंगा। नो अवलंबिज्जा-अचित भीत आदि का आश्रय नहीं लंगा। नोकाएण विपरिकम्माइ-काया से संकोचन प्रसारण नहीं करूंगा और। नो सिवियारं-न हाथ-पैर आदि को हिलाऊंगा। इति-इस प्रकार। ठाणं-स्थान पर। ठाइस्सामि-ठहरूंगा तथा। वोसट्ठकाये-कुछ काल के लिए काया के ममत्व भाव को त्याग कर और।वोसट्ठकेसमंसुलोमनहे- केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम, नख के ममत्व भाव को छोड़ कर।वा-अथवा। संनिरुद्धं-सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके । इति-इस प्रकार।ठाणंठाइस्सामि-स्थान में ठहरूंगा अर्थात् यदि कोई केशादि का भी उत्पाटन करे तो भी ध्यान से विचलित नहीं होऊंगा। चउत्था पडिमा-यह चौथी प्रतिमा का स्वरूप है। इच्चेयासिं-इन पूर्वोक्त। चउण्हं पडिमाणं-चार प्रतिमाओं। जाव-यावत् में से। पग्गहियतरायं-किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके। विहरिजा-विचरे किन्तु। नो किंचिवि वइजा-अन्य किसी मुनि की-जिसने प्रतिमा ग्रहण नहीं की-न तो निन्दा करे और न उनके विषय में कुछ कहे। वह यह न सोचे कि मैंने उत्कृष्ट भाव से अमुक प्रतिमा ग्रहण की है अतः मैं उत्कृष्ट वृत्ति वाला हूं और ये मुनि-जिन्होंने प्रतिमा धारण नहीं की शिथिलाचारी हैं इस प्रकार न कहे। एयं खलुनिश्चय ही यह। तस्स०-उस भिक्षु का समग्राचार-सम्पूर्ण आचार है। जाव-यावत्। जइज्जासि-इस का पालन करने में यत्न करे।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। ठाणसत्तिक्कयं सम्मत्तं-पहला स्थान सप्तक समाप्त हुआ।
मूलार्थ-किसी गांव या शहर में ठहरने का इच्छुक साधु-साध्वी पहले ग्रामादि में जाकर उस स्थान को देखे, जो स्थान मकड़ी आदि के जालों से या अण्डे आदि से युक्त हो उसके मिलने पर भी उसे अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे।शेष वर्णन शय्या अध्ययन के समान जानना चाहिए।
साधु को स्थान के दोषों को छोड़ कर स्थान की गवेषणा करनी चाहिए और उसे उक्त स्थान पर चार प्रतिमाओं के द्वारा बैठे-बैठे या खड़े होकर कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिएं।१मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, और अचित्त भीत आदि का सहारा लूंगा, तथा हस्त पादादि का संकोचन प्रसारण भी करूंगा एवं स्तोक मात्र, पादादि से.मर्यादित भूमि में भ्रमण भी करूंगा।