Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उक्त मकान में स्थित साधु के पास यदि कोई साधर्मिक, साम्भोगिक और समान समाचारी वाला अन्य साधु अतिथि रूप में आ जाए तो वह अपने लाए हुए आहार-पानी का आमन्त्रण करके उनकी सेवा करे, परन्तु अन्य द्वारा लाए हुए आहार-पानी का आमन्त्रण न करे। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक तो यह है कि साधु को अपने अतिथि साधु की स्वयं सेवा करनी चाहिए। इससे पारस्परिक प्रेम-स्नेह में अभिवृद्धि होती है। दूसरी यह है कि साधु का एक माण्डले पर बैठकर आहार-पानी करने का सम्बन्ध उसी साधु के साथ होता है जो साधर्मिक, साम्भोगिक और समान आचार-विचार वाला है।
अब असम्भोगी साधु के साथ कैसा व्यवहार रखना चाहिए, इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से आगंतारेसुवा ४ जावसे किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया अन्नसंभोइया समणुन्ना उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उवनिमंतिजा नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय २ उवनिमंतिजा॥
से आगंतारेसुवा ४ जाव से किं पुण तत्थुग्गहंसि एवोग्गहियंसिजे तत्थ गाहावईण वा गाहा• पुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अन्नमन्नस्स दिज वा अणुपइज वा, सयंकरणिजंति कटु, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कटु भूमीए वा ठवित्ता इमं खलु २ त्ति आलोइज्जा, नो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिंसि पच्चप्पिणिज्जा॥१५७॥
छाया- स आगन्तारेषु वा ४ यावत् स किं पुनः तत्रावग्रहे एवावग्रहीते ये तत्र साधर्मिकाः अन्यसाम्भोगिकाः समनोज्ञा उपागच्छेयुः ये तेन स्वयमेषितव्याः पीठं वा फलकं वा शय्या वा संस्तारको वा तेन तान् साधर्मिकान् अन्यसाम्भोगिकान् समनोज्ञान् उपनिमन्त्रयेत् नो चैव परप्रत्ययेन अवगृह्य २ उपनिमन्त्रयेत्।स आगन्तारेषु वा ४ यावत् स किं पुनः तत्रावग्रहे एवावग्रहीते ये तत्र गृहपतीनां वा गृहपतिपुत्राणां वा सूची वा पिप्पलकं वा कर्णशोधनको वा नखच्छेदनको वा ते आत्मनः एकस्यार्थाय प्रातिहारिकं याचित्वा नो अन्योन्यस्य दद्याद् वा अनुप्रदद्याद्वा स्वयं करणीयमितिकृत्वा स तदादाय तत्र गच्छेत्, पूर्वमेव उत्तानकं हस्तं कृत्वा भूमौ वा स्थापयित्वा इदं खलु २ इति आलोचयेत् नो चैव स्वयं पाणिना परपाणौ प्रत्यर्पयेत्।
पदार्थ- से-वह साधु। आगंतारेसु वा-धर्मशाला आदि में। जाव-यावत्। से-वह भिक्षु। तत्थोवग्गहंसि-वहां अवग्रह लिए जाने पर। एवोग्गहियंसि-प्रकर्ष पूर्वक आज्ञा दिए जाने पर। पुण किं-पुनः वह वहां क्या करे ? अब सूत्रकार इस सम्बन्ध में कहते हैं। जे-जो। तत्थ-वहां पर। साहम्मिया-अतिथि रूप में