Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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सप्तम अध्ययन, उद्देशक २
३६५ आम्र फल खाने की इच्छा हो तो उसे कैसे आम्रफल को ग्रहण करना चाहिए, इसके सम्बन्ध में बताया गया है कि वह फल अंडादि से युक्त हो तो वह उसे ग्रहण न करे। अंडादि से रहित होनेपरन्तु यदि उसका तिरछा छेदन न हुआ हो तथा उसके अनेक खण्ड भी न किए गए हों तो भी उसे साधु स्वीकार न करे। परन्तु यदि वह अंडादि से रहित हो, तिरछा छेदन किया हुआ हो और खंड २ किया हुआ हो तो अचित्त एवं प्रासुक होने पर साधु उसे ग्रहण कर सकता है। परन्तु आम्र का आधा भाग, उसकी फाड़ी, उसकी छाल और उसका रस एवं उसके किए गए सूक्ष्म खंड यदि अंडादि से युक्त हों या अंडादि से रहित होने पर भी तिरछे कटे हुए न हों और खंड २ न किए गए हों तो साधु उसे भी ग्रहण न करे। यदि उनका तिरछा छेदन किया गया है, और अनेक खंड किए गए हैं तब उसे अचित्त और प्रासुक जानकर साधु ग्रहण कर ले।
__ यदि कोई साधु या साध्वी इक्षु वन में ठहरना चाहे और वन पालक की आज्ञा लेकर वहां ठहरने पर यदि वह इक्षु (गन्ना) खाना चाहे तो पहले यह निश्चय करे कि जो इक्षु अंडादि से युक्त है और तिरछा कटा हुआ नहीं है तो वह उसे ग्रहण न करे। यदि अंडादि से रहित और तिरछा छेदन किया हुआ हो तो उसको अचित्त और प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले।इसका शेष वर्णन आम्र के समान ही जानना चाहिए। यदि साधु इक्षु के पर्व का मध्य भाग, इक्षुगंडिका, इक्षुत्वचा-छाल, इक्षुरस और इक्षु के सूक्ष्म खंड आदि को खाना-पीना चाहे तो वह अंडादि से युक्त या अंडादि से रहित होने पर भी तिरछा कटा हुआ न हो तथा वह खंड-खंड भी न किया गया हो तो साधु उसे ग्रहण न करे। इसी प्रकार लशुन के सम्बन्ध में भी तीनों आलापक समझने चाहिएं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में आम्र फल, इक्षु खण्ड आदि के ग्रहण एवं त्याग करने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। आम्र आदि पदार्थ किस रूप में साधु के लिए ग्राह्य एवं अग्राह्य हैं, इसका नयसापेक्ष वर्णन किया गया है। और इसका सम्बन्ध केवल पक्व आम आदि से है, न कि अर्ध पक्व या अपक्व फलों से। पक्व आम्र आदि फल भी यदि अण्डों आदि से युक्त हों, तिरछे एवं खण्ड-खण्ड में कटे हुए.न हों तो साधु उन्हें ग्रहण न करे और यदि वे अण्डे आदि से रहित हों, तिरछे एवं खण्ड-खण्ड में कटे हुए हों तो साधु उन्हें ग्रहण कर सकता है। उस पक्व फल के तिर्यक एवं खण्ड-खण्ड में कटे होने का उल्लेख उसे अचित्त एवं प्रासुक सिद्धि करने के लिए है। निशीथ सूत्र में यह भी स्पष्ट किया गया है कि यदि साधु सचित्त आम्र एवं सचित्त इक्षु ग्रहण करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। इससे स्पष्ट होता है कि साधु अचित्त एवं प्रासुक आम्र आदि ग्रहण कर सकता है। यदि वह पक्व फल जीवजन्तु से रहित हो और तिर्यक् कटा हुआ हो तो साधु के लिए अग्राह्य नहीं है और न वह सचित्त ही रह जाता है।
अब अवग्रह के अभिग्रह के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से भि० आगंतारेसुवा ४ जावोग्गहियंसिजे तत्थ गाहावईण वा गाहा• पुत्ताण वा इच्चेयाइं आयतणाई उवाइक्कम्म अह भिक्खू जाणिज्जा,
१. निशीथ सूत्र, उद्देशक १५, ५, १२ उद्देशक १६.४, ११।