Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ-गृहस्थ के घर में गए हुए साधु या साध्वी ने जब पानी की याचना की और गृहस्थ घर के भीतर से सचित्त जल को किसी अन्य भाजन में डाल कर साधु को देने लगा हो तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। कदाचित्-असावधानी से वह जल ले लिया गया हो तो शीघ्र ही उस जल को वापिस कर दे। यदि गृहस्थ उसे वापिस न ले तो फिर वह उस जल युक्त पात्र को लेकर स्निग्ध भूमि में अथवा अन्य किसी योग्य स्थान में जल को परठ दे और पात्र को एकान्त स्थान में रख दे, किन्तु जब तक उस पात्र से जल के बिन्दु टपकते रहें या वह पात्र गीला रहे तब तक उसे न तो पोंछे और न धूप में सुखाए। जब यह जान ले कि मेरा यह पात्र अब विगत जल और स्नेह से रहित हो गया है तब उसे पोंछ सकता है और धूप में भी सुखा सकता है।
संयमशील साधु या साध्वी जब आहार लेने के लिए गृहस्थ के घर में जाए तो अपने पात्र साथ लेकर जाए। इसी तरह स्थंडिल भूमि और स्वाध्याय भूमि में जाते समय भी पात्र को साथ लेकर जाए और ग्रामानुग्राम विहार करते समय भी पात्र को साथ में ही रखे। और न्यूनाधिक वर्षा के समय की विधि का वर्णन वस्त्रैषणा अध्ययन के दूसरे उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए। यही साधु या साध्वी का समग्र आचार है। प्रत्येक साधु-साध्वी को इसके परिपालन करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गृहस्थ के घर में पानी के लिए गए हुए साधु-साध्वी को कोई गृहस्थ सचित्त पानी देने का प्रयत्न करे तो वह उसे स्वीकार न करे। और यदि कभी असावधानी से ग्रहण कर लिया हो तो उसे अपने उपयोग में न लाए। वह उसे उसी समय वापिस कर दे, यदि गृहस्थ वापिस लेना स्वीकार न करे तो एकान्त स्थान में स्निग्ध भूमि पर परठ दे और उस पात्र को तब तक न पोंछे एवं न धूप में सुखाए जब तक उसमें पानी की बून्दें टपकती हों या वह गीला हो।
__सचित्त पानी देने के सम्बन्ध में वृत्तिकार ने चार कारण बताए हैं- १-गृहस्थ की अनभिज्ञतावह यह न जानता हो कि साधु सचित्त पानी लेते हैं या नहीं, २- शत्रुता-साधु को बदनाम करके उसे लोगों के सामने सदोष पानी ग्रहण करने वाला बताने की दृष्टि से, ३-अनुकम्पा-साधु को प्यास से व्याकुल देखकर अचित्त जल न होने के कारण दया भाव से और ४-विमर्षता-किसी विचार के कारण उसे ऐसा करने को विवश होना पड़ा हो। यह स्पष्ट है कि गृहस्थ चाहे जिस परिस्थिति एवं भावनावश सचित्त जल दे, परन्तु साधु को किसी भी परिस्थिति में सचित्त जल का उपयोग नहीं करना चाहिए।
सचित्त जल को परठने के सम्बन्ध में वृत्तिकार का कहना है कि यदि गृहस्थ उस सचित्त जल को वापिस लेना स्वीकार न करे तो साधु को उसे कूप आदि में समान जातीय जल में परठ देना चाहिए। और उपाध्याय पार्श्व चन्द्र ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि यदि साधु के पास दूसरा पात्र हो तो उसे उस सचित्त जल युक्त पात्र को एकान्त में परठ(छोड़) देना चाहिए। परन्तु, ये दोनों कथन आगम सम्मत प्रतीत नहीं होते। क्योंकि, आगम में पानी को परटने के लिए स्पष्ट रूप से स्निग्ध भूमि का उल्लेख किया गया है। अतः उस जल को कुंएं आदि में डालना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इस क्रिया में अप्कायिक एवं अन्य जीवों की हिंसा होगी। और उस सचित्त जल के साथ पात्र को परठना भी उचित प्रतीत नहीं