Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध बूया-केवली भगवान कहते हैं कि।आ०-बिना प्रतिलेखना किए वस्त्र का लेना कर्म बन्धन का कारण है।सियाकदाचित्। वत्थंतेण-वस्त्र के अन्त में। बद्धे-कुछ बन्धा हुआ हो यथा। कुंडले वा-कुंडल। गुणे वा-धागाडोरा। हिरण्णे-हिरण्य-चांदी आदि अथवा। सुवण्णे वा-सुवर्ण-सोना अथवा। मणी वा-मणिरत्न। जावयावत्।रयणावली वा-रत्नावली-रत्नों की माला आदि। पाणे वा-कोई प्राणी। बीए वा-बीज अथवा। हरिए वा-हरी आदि।अह-अथ।भिक्खूणं-भिक्षुओं के लिए। पु०-पहले ही तीर्थंकरादि ने आदेश दे रक्खा है। जं-जो कि साधु।पुव्वामेव-पहले ही।वत्थं-वस्त्र को।अंतोअंतेणं-अन्तप्रान्त से-चारों ओर से।पडिलेहिज्जा-प्रतिलेखना करे, अर्थात् प्रतिलेखना करके ग्रहण करे।
मूलार्थ-वस्त्रैषणा के इन पूर्वोक्त तथा वक्ष्यमाण दोषों को छोड़कर संयमशील साधु अथवा साध्वी इन चार प्रतिमाओं-अभिग्रह विशेषों से वस्त्र की गवेषणा करे, यथा-ऊन आदि के वस्त्रों का संकल्प कर उद्देश्य रख कर स्वयं वस्त्र की याचना करे या गृहस्थ ही बिमा मांगे वस्त्र देवे, यदि प्रासुक होगा तो लूंगा, यह प्रथम प्रतिमा है। दूसरी प्रतिमा- देख कर वस्त्र की याचना करूंगा। तीसरी प्रतिमा- गृहस्थ का पहना हुआ वस्त्र लूंगा। चौथी प्रतिमा -उज्झित धर्म वाला वस्त्र लूंगा, जिसे अन्य शाक्यादि श्रमण न चाहते हों। इन प्रतिमाओं- अभिग्रहों को धारण करने वाला साधु अन्य साधुओं की निन्दा न करे तथा स्वयं अहंकार भी न करे, किन्तु जो जिनाज्ञा में चलने वाले हैं वे सब पूज्य हैं इस प्रकार की समाधि अर्थात् समभाव से विचरे। वस्त्र की गवेषणा करते हुए साधु को यदि कोई गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अब तो तुम चले जाओ। किन्तु मासादि के अन्तर से अर्थात् एक मास या दस दिन अथवा पांच दिन आदि के अनन्तर तुम लेने यहां आना, तब साधु उस गृहस्थ के प्रति कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह प्रतिज्ञापूर्वक वचन सुनना नहीं कल्पता। अतः यदि तुम देना चाहते हो तो अभी दे दो। इस पर यदि गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ, थोड़े समय के अनन्तर आकर वस्त्र ले जाना। तब भी मुनि यही कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह संकेत पूर्वक वचन स्वीकार करना नहीं कल्पता, यदि तुम देना चाहते हो तो इसी समय दे दो। तब गृहस्थ ने किसी निजी पुरुष या बहिन आदि को बुलाकर कहा कि यह वस्त्र इस साधु को दे दो। हम पीछे अपने लिए प्राणियों का समारम्भ करके और बना लेंगे। गृहस्थ के इस प्रकार के शब्दों को सुनकर पश्चात्कर्म लगने से उस वस्त्र को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर साधु ग्रहण न करे।और यदि घर का स्वामी अपने परिवार से कहे कि लाओ इस वस्त्र को जल से धोकर और सुगन्धित द्रव्यों से घर्षित करके इस साधु को देवें, तब साधु उसे ऐसा करने से मना करे। उसके मना करने-निषेध करने पर भी यदि गृहस्थ उक्त क्रिया करके वस्त्र देना चाहे तो साधु उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे एवं यदि शीतल अथवा उष्ण जल से धोकर देना चाहे और रोकने पर भी न रुके तो साधु उस वस्त्र को भी स्वीकार न करे। इसी प्रकार यदि वस्त्र में कन्द-मूल आदि वनस्पति बान्धी हुई हो या रखी पड़ी हो उसको अलग कर के देना चाहे तो भी न ले। और यदि गृहस्थ साधु को वस्त्र दे ही दे तो साधु बिना प्रतिलेखना किए, बिना अच्छी तरह देखे-भाले उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे, कारण कि केवली भगवान कहते हैं कि बिना प्रतिलेखना के वस्त्र का ग्रहण कर्म बन्धन का हेतु होता है, सम्भव है वस्त्र के किसी किनारे में