Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम अध्ययन, उद्देशक १
३१९ करके। जाव-यावत्।.चेइस्सामो-वस्त्र बना लेंगे। एयप्पगारं-इस प्रकार के। निग्घोसं-शब्द को। सुच्चा-सुन कर। निसम्म-विचार कर। तहप्पगारं-तथाप्रकार के। वत्थं-वस्त्र को। अफासुयं-अप्रासुक। जाव-यावत् अनेषणीय जानकर। नो पडिगाहिज्जा-ग्रहण न करे। णं-वाक्यालंकार में है। सिया-कदाचित्। परो नेताअन्य गृहस्थ-गृहस्वामी यदि। वइज्जा-घर के किसी स्त्री या पुरुष को इस प्रकार आमन्त्रित करता हुआ कहे। आउसोत्ति वा २-आयुष्मन्! अथवा बहन ! एयं वत्थं-वह वस्त्र। आहर-ला, इसको। सिणाणेण वा ४स्नानादि सगन्धित द्रव्यों से आघर्षण करके। प०-प्रघर्षण करके।समणस्स-श्रमण-साधको।दाहामो-देंगे।णंवाक्यालंकार में है। एयप्पगारं-इस प्रकार के निर्घोष शब्द को। सुच्चा-सुनकर। निसम्म-हृदय में विचार कर। से-वह साधु। पुवामेव-पहले ही देख कर कहे कि।आउ-हे आयुष्मन् ! अथवा। भ०-हे भगिनि ! तुमं-तुम। एयंवत्थं-इस वस्त्र को। सिणाणेण वा-स्नानादि से। जाव-यावत्।मा पघंसाहि-मत प्रघर्षित करो? अभि०यदि तुम देना चाहते हो तो। एमेव दलयाहि-इसी तरह दे दो ? सेवं वयंतस्स-उसके इस प्रकार कहने पर। से परो-वह गृहस्थ यदि। सिणाणेण वा-स्नानादि से। पघंसित्ता-प्रघर्षित करके। दलइज्जा-देवे तो। तहप्प०तथाप्रकार के। वत्थं-वस्त्र को अफासुयं-अप्रासुक जानकर। नो प०-ग्रहण न करे।णं-वाक्यालंकार में है। से परो-वह गृहस्था नेता-गृह स्वामी यदि घर के किसी भी व्यक्ति को। वइजा-कहे। भ०-हे भगिनि ! आहर-ला। एयं वत्थं-वह वस्त्र उसको। सीओदगवियडेण वा-निर्मल शीतल या उष्ण जल से। उच्छोलेत्ता वा-उत्क्षालन करके। पहोवेत्ता वा-प्रक्षालन करके। समणस्स-श्रमण-साधु को। दाहामो-देंगे। णं-वाक्यालंकार में । एय-इस प्रकार के। निग्योसं-निर्घोष-शब्दों को सुनकर। तहेव-उसी प्रकार कहे जैसे कि पूर्व कह चुके हैं। नवरं-इतना विशेष है तब साधु उस गृहस्थ या स्त्री के प्रति सम्बोधन करता हुआ कहे। तुम-तुम। एयं वत्थं-इस वस्त्र को। सीओदग-शीतोदक से। उसि-उष्णोदक से।मा-मत। उच्छोलेहि वा-उत्क्षालन करो तथा।पहोवेहि वा-प्रक्षालन मत करो।अभिकंखसि-यदि तुम चाहते हो मुझे देना तो इसी प्रकार दे दो।सेसं-शेष वर्णन।तहेवउसी प्रकार है जैसे कि पूर्व लिखा जा चुका है। जाव-यावत् धोकर देवे तो। नो पडिगाहिज्जा-उसे अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। से-वह। परो-अन्य गृहस्थाने०-घर का स्वामी कहे कि।आ० भ०-हे आयुष्मन्। अथवा हे भगिनि! आहर-लाओ। एयं वत्थं-यह वस्त्र, इसे। कंदाणि वा-कन्द। जाव-यावत्।हरियाणि वा-हरी से। विसोहित्ता-विशुद्ध करके।समणस्स-श्रमण-साधु को। दाहामो-देंगे।णं-वाक्यालंकार में। एयप्पगारं-इस प्रकार के।निग्धोसं-निर्घोष-शब्द को सुनकर। तहेव-उसी प्रकार-अर्थात् शेष वर्णन पूर्ववत् ही है। नवरं-इतना विशेष है कि तब साधु गृहस्थ के प्रति कहे कि। तुम-तुम। एयाणि कंदाणि-इन कन्दादि से। जाव-यावत् हरियाली से वस्त्र को। मा विसोहेहि-विशुद्ध मत करो। खलु-निश्चयार्थ में है। मे-मुझे। नो कप्पइ-नहीं कल्पता। एयप्पगारे-इस प्रकार के। वत्थे-वस्त्रों का। पडिगाहित्तए-ग्रहण करना। सेवं वयंतस्स-इस प्रकार कहते हुए साधु के।से-वह। परो-गृहस्थ। जाव-यावत् कन्दादि से। विसोहित्ता-विशुद्ध कर। दलइज्जा-देवे तो।तहप्प-तथा प्रकार के-वत्थं-वस्त्र को।अफासुयं-अप्रासुक और अनेषणीय जानकर।नो पडिगाहिज्जाग्रहण न करे। सिया-कदाचित्।से-वह। परो-अन्य।नेता-गृहस्वामी।वत्थं-वस्त्र को घर से लाकर।निसिरिजासाधु को देवे तो।से-वह साधु। पुव्वा०-पहले ही देखे और देखकर।आ० भ०-आयुष्मन् गृहस्थ ! या हे भगिनिबहन! तुमं चेव-तुम्हारा ही। संतियं वत्थं-यह वस्त्र है मैं इसकी।अंतोअंतेणं-अन्तप्रान्त अर्थात् चारों कोनों से। पडिलेहिजिस्सामि-प्रतिलेखना करूंगा अर्थात् इसे चारों ओर से अच्छी तरह से देखूगा, क्योंकि। केवली