Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
३४०
अप्राक जानकर । जाव - यावत् । नो पडि० ग्रहण न करे ।
भिक्खू वा वह साधु अथवा साध्वी से वह । जाई - जो । पुण- फिर । पायं पात्र को । जाणिज्जाजाने । विरूवं०-नाना प्रकार के विविध-भान्ति के । महद्धणबंधणाइं- जिनके मूल्यवान बन्धन हैं। तं०-जैसे कि । अयबंधणाणि वा-लोहे के बन्धन । जाव- यावत् । चम्मबंधणाणि वा चर्म के बन्धन वाले, तथा । अन्नयराइंअन्य भी । तहप्प० - तथाप्रकार के । महद्धणबंधणाइं-कीमती बन्धनों को जानकर और उन बन्धनों के कारण इन पात्रों को। अफा० - अप्रासुक मान कर । नो पडि० ग्रहण न करे। इच्चेयाइं ये सब पूर्वोक्त। आयतणाई - पात्र सम्बन्धी दोषों के स्थान हैं। इनको। उवाइक्कम्म-अतिक्रम करके अर्थात् छोड़कर पात्र ग्रहण करना चाहिए।
अह - अथ । भिक्खू - साधु । जाणिज्जा - यह जाने कि । चउहिं पडिमाहिं उसे चार प्रतिमाओं-अभिग्रह विशेषों से । पायं - पात्र की। एसित्तए - गवेषणा करनी है। खलु वाक्यालंकार में है। तत्थ उन चारों प्रतिमाओं में से। इमा-यह । पढमा-पहली । पडिमा प्रतिमा है। से वह । भिक्खू० - साधु या साध्वी । उद्दिसिय २ - नाम लेकर। पायं - पात्र की । जाइज्जा-याचना करे। तंजहा जैसे कि । अलाउयपायं वा ३ - अलाबुक पात्र - तूम्बे का पात्र, काष्ठ का पात्र और मिट्टी का पात्र । तह० - तथाप्रकार के। पायं पात्र की। सयं वा स्वयं अपने आप जाइज्जायाचना करे। जाव-यावत् । पडि० ग्रहण करे। पढमा पडिमा - यह पहली प्रतिमा है। णं-वाक्यालंकार में है । अहावरा -अथ अपर दूसरी प्रतिमा कहते हैं। से० - वह साधु या साध्वी । पेहाए-देखकर। पायं - पात्र की । जाइज्जायाचना करे। तं- जैसे कि । गाहावइं वा गृहपति यावत् । कम्मकरिं वा काम करने वाले दास-दासी आदि। सेवह भिक्षु । पुव्वामेव-पहले ही गृहस्थ के घर में। आलोइज्जा - देखे और देख कर इस प्रकार कहे । आउ०- आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा। भ०-भगिनि ! बहिन । मे मुझे । इत्तो-इन पात्रों में से । अन्नयरं - अन्यतर कोई एक । पायं-पात्र को। दाहिसि - दोगे या दोगी ? तंजहा- जैसे कि । अलाउपायं वा ३- तुम्बी का पात्र, लकड़ी और मिट्टी का पात्र । तह० - तथाप्रकार के अन्य । पायं - पात्र की। सयं वा स्वयमेव याचना करे अथवा बिना मांगे कोई देवे । जाव- यावत् । पडि०-ग्रहण करे। दुच्चा पडिमा यह दूसरी प्रतिमा है। अहावरा -अथ अपर अर्थात् तीसरी प्रतिमा कहते हैं। से वह । भि० - साधु अथवा साध्वी । से जं- वह जो । पुण- फिर पायें - पात्र को । जाणिज्जा - जाने । संगइयं वा गृहस्थ का भोगा हुआ पात्र । वेजइयंतियं वा गृहस्थ के भोगे हुए दो वा तीनं पात्र जिनमें खाद्य पदार्थ पड़े हुए हों या पड़ चुके हों। तहप्पगारं तथाप्रकार के । पायं पात्र को । सयं वा स्वयं याचना करे, अथवा गृहस्थ बिना मांगे देवे तो । जाव - यावत् । पडि० ग्रहण करे । तच्चा पडिमा - यह तीसरी प्रतिमा है। अहांवरा चउत्था पडिमा -अथ चौथी प्रतिमा कहते हैं। से भि०-वह साधु या साध्वी । उज्झियधम्मियं उज्झितधर्म वाले पात्र की। जाएजा - याचना करे। जाव - यावत् । अन्ने अन्य । बहवे बहुत । समणा - शाक्यादि श्रमण। जाव- यावत् । नावकंखंति नहीं चाहते। तह - तथाप्रकार के पात्र की । जाएज्जा - स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना मांगे देवे तो । जाव- यावत् प्रासुक जानकर । पडि०-ग्रहण करे। चउत्था पडिमा - यह चौथी प्रतिमा-अभिग्रह विशेष है। इच्चेइयाणं- इन पूर्वोक्त । चउण्हं पडिमाणं चार प्रतिमाओं में से । अन्नयरं-किसी एक । पडिमं प्रतिमा को, शेष वर्णन। जहा-जैसे। पिंडेसणाए - पिण्डैषणा अध्ययन में सात प्रतिमाओं के विषय में किया गया है उसी प्रकार जानना। णं-वाक्यालंकार में है । से- साधु को । एयाए एसणाए - इस एषणा - पात्रैषणा के द्वारा। एसमाणंगवेषणा-पात्र को अन्वेषणा करते हुए को। पासित्ता-देखकर यदि । परो-कोई गृहस्थ । वइज्जा - इस प्रकार कहे । आउ० स०-आयुष्मन् श्रमण ! एज्जासि- - अब तुम जाओ। तुमं तुमने । मासेण वा एक मास के बाद आना शेष