Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मूलम् - अब्भुवगए खलु वासावासे अभिपवुट्ठे बहवे पाणा, अभिसंभूया बहवे बीया अहुणाभिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा, बहुबीया जाव ससंताणगा अणभिक्कंता पंथा नो विन्नाया मग्गा सेवं नच्चा नो गामाणुगामं दूइज्जिज्जा, तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा ॥ १११ ॥
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छाया - अभ्युपगते खलु वर्षावासे अभिप्रवृष्टे बहवः प्राणिनः अभिसंभूताः बहूनि बीजानि अधुना भिन्नानि अन्तराले तस्य मार्गाः बहुप्राणिनः बहुबीजा यावत् संसन्तानकाः अनभिक्रान्ताः पन्थानः नो विज्ञाता मार्गाः स एवं ज्ञात्वा न ग्रामानुग्रामं यायात् ततः संयतमेव वर्षावासम् उपलीयेत।
पदार्थ- खलु-वाक्यालंकार में है । वासावासे - वर्षाकाल के सामने । अब्भुवगए- आ जाने पर । अभिपवुट्ठे- वर्षा ऋतु अर्थात् आषाढ़ चातुर्मास के पहले ही वर्षा के हो जाने से। बहवे पाणा - बहुत से द्वीन्द्रिय आदिजीव । अभिसंभूया- उत्पन्न हो गए हैं और । बहवे बीया - बहुत से बीज । अहुणाभिन्ना- अंकुरित हो गए हैं अर्थात् बरसात के कारण उत्पन्न हुए अंकुरों से पृथ्वी हरी-भरी हो गई है। अन्तरामग्गा-मार्ग के मध्य में। से-उ -उस भिक्षु को विहार करना कठिन हो गया है, क्योंकि मार्ग में। बहुपाणा-बहुत से प्राणी और। 1 बहुबीया - बहुत से बीज । जाव - यावत् । ससंताणगा - बहुत से जाले उत्पन्न हो गए हैं तथा वर्षा के कारण। अणभिक्कंता पंथाजनता के गमनागमन के अभाव से मार्ग अवरुद्ध हो गया है तथा रास्ते में हरियाली के उत्पन्न हो जाने से । नो विन्नाया मग्गा - मार्ग एवं उन्मार्ग का पता नहीं लगता है। सेवं वह साधु इस प्रकार । नच्चा - जानकर । गामाणुगामंएक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर। नो दूइज्जिज्जा - विहार न करे किन्तु । संजयामेव संयत-साधु । तओ - तदनन्तर । वासावासं वहीं वर्षाकाल । उवल्लिइज्जा - करे ।
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मूलार्थ - वर्षाकाल में वर्षा हो जाने से मार्ग में बहुत से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं तथा अंकुरित हो जाते हैं, पृथ्वी घास आदि से हरी हो जाती है। मार्ग में बहुत से प्राणी, बहुत से तथा आदि की उत्पत्ति हो जाती है, एवं वर्षा के कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाने से मार्ग और उन्मार्ग का पता नहीं लगता । ऐसी परिस्थिति में साधु को एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार नहीं करना चाहिए। किन्तु वर्षाकाल के समय एक स्थान पर ही स्थित रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु वर्षा - कालपर्यन्त भ्रमण न करे किन्तु एक ही स्थान पर ठहरे।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु को वर्षाकाल में विहार करने का निषेध किया गया है। एक वर्ष में तीन चातुर्मास होते हैं- १ - ग्रीष्म, २ - वर्षा और ३- हेमन्त । इनमें वर्षाकाल में ही साधु को एक स्थान में स्थित होने का आदेश दिया गया है क्योंकि वर्षाकाल में पृथ्वी शस्य - श्यामला हो जाती है, क्षुद्र जन्तुओं की उत्पत्ति बढ़ जाती है और हरियाली एवं पानी की अधिकता के कारण मार्ग अवरुद्ध जाते हैं। अतः उस समय विहार करने से अनेक जीवों की विराधना होना संभव है। इस कारण साधु को वर्षाकाल में विहार नहीं करना चाहिए।