Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन, उद्देशक १
२२७ इससे स्पष्ट होता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक विहार नहीं करना चाहिए। यदि कभी आषाढ़ी पूर्णिमा से पूर्व ही वर्षा प्रारम्भ हो जाए और चारों तरफ हरियाली छा जाए तो साधु को उसी समय से एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिए और वर्षावास के लिए आवश्यक वस्त्र आदि ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि, वर्षावास में वस्त्र आदि ग्रहण करना नहीं कल्पता, इसलिए साधु उनका वर्षावास के पूर्व ही संग्रह कर ले।
__वर्षावास का प्रारम्भ चन्द्रमास से माना गया है। अतः वह श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को समाप्त होता है। शाकटायन ने भी आषाढ़, कार्तिक एवं फाल्गुन की पूर्णिमा को चातुर्मास की पूर्णिमा स्वीकार किया है। उसने भी वर्ष में तीन चातुर्मासी को मान्य किया है।
___इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साधु को वर्षाकाल में विहार नहीं करना चाहिए। परन्तु, वर्षावास के लिए साधु को किन बातों का विशेष ख्याल रखना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय० नो महई विहारभूमि नो महई वियारभूमी नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे जत्थ बहवे समण. वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमण जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारंगामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा नो वासावासं उवल्लिइज्जा॥
से भि० से जं. गामं वा जाव राय इमंसि खलु गामंसि वा जाव महई विहारभूमि महई वियार० सुलभे जत्थपीढ ४ सुलभे फा० नो जत्थ बहवे समण. उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जाव रायहाणिं वा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा॥११२॥
__ छाया- स भिक्षुर्वा स यत् ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा न महती विहारभूमिः, न महती विचारभूमिः न सुलभानि पीठफलकशय्यासंस्तारकानि न सुलभः प्रासुकः उञ्छः अथैषणीयः यत्र बहवः श्रमण वनीपकाः उपागताः, उपागमिष्यन्ति च अत्याकीर्णा वृत्तिः नो प्राज्ञस्य निष्क्रमणं यावत् चिन्तायै, तदेवं ज्ञात्वा तथाप्रकारे ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा न वर्षावासं उपलीयेत। स भिक्षु स १ चातुर्मासान्नाम्नि, ३,१,१२१॥
___ अणिति वर्तते। चतुर्मास शब्दात् तत्र भवे अण् भवति प्रत्ययान्ते नाम्नि। चतुर्युमासेषु भवा चातुर्मासी, पौर्णमासी-आषाढ़ी, कार्तिकी, फाल्गुनी चोच्यते। अन्यत्र चातुर्मासः श्लुब् द्विगोरिति श्लुक। - शाकटायन व्याकरण।