Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन, उद्देशक १ २३१ दिनों में वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग हरियाली से ढक जाएं, जीवों की उत्पत्ति हो जाए और अन्य मत के भिक्षु भी अधिक संख्या में न आए हों तो वर्षाकाल के समाप्त होने पर मुनि हेमन्त काल के १५ दिन तक उस स्थान में ठहर सकता है, इससे स्पष्ट होता है कि मुनि का जीवन जीव रक्षा के लिए है । क्षुद्र जीवों की यत्ना के लिए ही वह चार महीने एक स्थान पर स्थित होता है। अतः उसके पश्चात् भी क्षुद्र जीवों की एवं वनस्पति की अधिक उत्पत्ति हो तो वह १५ दिन और रुक जाता है । प्रस्तुत सूत्र में इससे अधिक समय का उल्लेख नहीं किया गया है और प्रायः हेमन्त काल में मार्ग भी साफ हो जाता है। फिर भी यदि कभी अकस्मात् वर्षा की अधिकता से मार्ग में हरियाली एवं क्षुद्र जन्तुओं की अधिक उत्पत्ति हो जाए और उससे संयम की विराधना होने की संभावना देखकर साधु कुछ दिन और ठहर जाता है, तो भी वह आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। क्योंकि वह केवल संयम की विशुद्ध आराधना के लिए ही ठहरता है । यदि वर्षाकाल के पश्चात् मौसम साफ हो, मार्ग में किसी तरह की रुकावट न हो तो साधु को मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को विहार कर देना चाहिए ।
आगम में स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया गया है कि साधु-साध्वी को वर्षाकाल में विहार करना नहीं कल्पता परन्तु हेमन्त और ग्रीष्म काल में विहार करना कल्पता है' । आचारांग सूत्र में भी एक स्थल पर कहा है कि यदि साधु मास या वर्षावास कल्प के बाद उसी स्थान पर ठहरता है तो उसे कालातिक्रम दोष लगता है। और श्रमण भगवान महावीर ने भी कार्तिक चातुर्मासी (पुर्णिमा) के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को विहार कर दिया था। इससे स्पष्ट होता है कि वर्षा आदि विशिष्ट कारणों के उपस्थित हुए बिना साधु को वर्षा काल के पश्चात् उसी स्थान पर नहीं ठहरना चाहिए।
• वृत्तिकार ने यह भी लिखा है कि यदि वृष्टि आदि न हो तो उत्सर्ग मार्ग में साधु को वर्षावास के समाप्त होने पर चातुर्मासी के तप का पारणा अन्य स्थान पर जाकर करना चाहिए। परन्तु आगम में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए यह कथन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । आगम में वर्षावास के पश्चात् बिना कारण रात को ठहरना नहीं कल्पता अर्थात् जिस स्थान में वर्षावास किया हो साधु को वहां मार्गशीर्ष कृष्णा की प्रतिपदा की रात को नहीं ठहरना चाहिए।
विहार के समय साधु को मार्ग की यत्ना कैसे करनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार
कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दट्ठूण तसे पाणे उद्धट्टु पायं रीइज्जा साहट्टु पायं रीइज्जा वितिरिच्छं वा कट्टु पायं रीइज्जा, सइ परक्कमे संजयामेव परिक्कमिज्जा नो उज्जुयं गच्छिज्जा,
१
२
३
नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासासु चारए । कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमन्तगिम्हासु चारए ।
श्री आचारांग सूत्र, २, २, २ श्री भगवती सूत्र, शतक १५ ।
- बृहत्कल्प सूत्र, १, ३६-३७ ।