Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
तृतीय अध्ययन, उद्देशक ३
२६९
आज्ञा के बिना उनके हाथ आदि का स्पर्श करने एवं उनके बीच में बोलने के लिए किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में आचार्य आदि साथ विहार करने के प्रसंग में जो साधु-साध्वी का उल्लेख किया है, वह सूत्र शैली के अनुसार किया गया है । परन्तु, साधु-साध्वी एक साथ विहार नहीं करते हैं, अतः आचार्य आदि के साथ साधुओं का ही विहार होता है, साध्वियों का नहीं। उनका विहार आचार्या (प्रवर्तिनी) आदि के साथ होता है। साधु और साध्वी दोनों के नियमों में समानता होने के कारण दोनों का एक साथ उल्लेख कर दिया गया है। अतः जहां साधुओं का प्रसंग हो वहां आचार्य आदि का और जहां साध्वियों का प्रसंग हो वहां प्रवर्तिनी आदि का प्रसंग समझना चाहिए ।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पा० एवं वइज्जा आउ० स० ! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह, तं॰ मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खि वा सिरीसिवं वा जलयरं वा से आइक्खह दंसेह, तं नो आइक्खिजा नो दंसिज्जा, नो तस्स तं परिन्नं परिजाणिज्जा, तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा, तओ सं० गामा० दू० । से भिक्खू वा० गा० दू० अंतरा से पाडि उवा०, तेणं पा० एवं वइज्जा आउ० स० ! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह, उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा उदगं वा संनिहियं अगणिं वा संनिखित्तं से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडि॰ उवा, ते णं पाडि० एवं आउ० स० अवियाई इत्तो पडिवहे पासह जवसाणि वा जाव सेणं वा विरूवरूवं संनिविट्ठ से आइक्खह, जाव दूइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा पा० जाव आऊ स॰ केवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणी वा से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपहिया आउसंतो समणा ! केवइए इत्तो. गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेव जाव दूइज्जिज्जा ॥१२९॥
छाया - स भिक्षुर्वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तराले तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिकाः एवं वदेयुः - आयुष्मन्तः श्रमणाः ! अपि चेतः प्रतिपंथे पश्यथ, तद् यथामनुष्यं वा गोणं वा महिषं वा पशुं वा पक्षिणं वा सरीसृपं वा जलचरं वा तं आचक्षध्वम् दर्शयत तं न आचक्षीत, न दर्शयेत् न तस्य तां परिज्ञां परिजानीयात्, तूष्णीकः उपेक्षेत जानन् वा न जानन्ति - ( जानन्नपि जानामि इति ) नो वदेत् । ततः संयतमेव ग्रामानुग्रामं दूयेत । स