Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
सामने हैं। परन्तु, इस बात में सभी विचारक एकमत हैं कि साधु को ऐसी भाषा का बिल्कुल प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे अनेक प्राणियों की हिंसा होती हो। इस दया की भावना को ध्यान में रखते हुए वृत्तिकार उक्त पदों का यह अर्थ करते हैं- साधु जानते हुए भी यह कहे कि मैं नहीं जानता । स्व० आचार्य श्री जवाहर लाल जी महाराज ने भी सद्धर्म मण्डन में इसी अर्थ का समर्थन किया है। इसमें साधु की भावना असत्य बोलने की नहीं, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करके जीवों की रक्षा करने की भावना है । परन्तु, फिर भी इस भाषा में कुछ असत्य का अंश रह ही जाता है, अतः यह विचारणीय है कि साधु ऐसी भाषा का प्रयोग कैसे कर सकता है।
यह भी तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'वा' शब्द अपि (भी) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है और ‘नो' शब्द 'वइज्जा' क्रिया से संबद्ध है। इस तरह इसका अर्थ हुआ कि साधु जानते हुए भी यह नहीं कहे कि मैं जानता हूँ । मोरबी से प्रकाशित आचारांग सूत्र के गुजराती अनुवाद में भी यही अर्थ किया गया है कि 'खरं जाणता छतां जाणुं छं एम न बोलबुं' । उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने भी आचारांग की बालावबोध टीका में उपरोक्त अर्थ को ही स्वीकार किया है।
आगम में प्राय:‘नो' शब्द का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- 'न मिणेहिं कहिंचि कुव्वेज्जा' अर्थात् कहीं पर भी स्नेह न करे । इस सूत्र में 'न' का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। इसके अतिरिक्त आगम में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनमें 'नो' शब्द को क्रिया के साथ ही सम्बद्ध माना है । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में 'नो' शब्द को 'वइज्जा' क्रिया से सम्बद्ध मानना ही युक्तियुक्त प्रतीत होता है। यदि इस तरह से 'नो' शब्द को क्रिया के साथ जोड़कर अर्थ नहीं करेंगे तो फिर मौन रखने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाएगा। फिर तो साधु सीधा ही यह कहकर आगे बढ़ जाएगा कि मैं नहीं जानता। परन्तु, आगम में जो मौन रखने को कहा गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को जानते हुए भी यह नहीं कहना चाहिए कि मैं नहीं जानता। साधु को जीवों की हिंसा एवं असत्य भाषा दोनों से बचना चाहिए ।
आगम में कहा गया है कि जिस भाषा के प्रयोग से जीवों की हिंसा होती हो वैसी सत्य भाषा
१.
२
आचाराङ्ग सूत्र (गुजराती अनुवाद) पृष्ठ २७० ।
उत्तराध्ययन सूत्र, ८, १८ ।
रइयाणं भंते! जीवा किं चलियं कम्मं बंधंति; अचलियं कम्मं बन्धन्ति ?
३
गोयमा ! णो चलियं कम्मं बन्धन्ति, अचलियं कम्मं बन्धन्ति ।
यहां पर 'णो' शब्द का बन्धति क्रिया के साथ सम्बन्ध है।
रइयाणं भंते जीवा किं चलियं कम्मं उदीरंति, अचलियं कम्मं उदीरन्ति ? गोयमा ! णो चलिये कम्मं उदीरंति, अचलियं कम्मं उदीरंति ।
यहां पर "उदीरंति" क्रिया के साथ 'नो' पद का सम्बन्ध है।
सा भंते! किं अत्तकडा कज्जइ, परकडा कज्जइ, तदुभय कडा कज्जइ ? गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ,' णो परकडा कज्जइ, णो तदुभयकडा कज्जइ ।
- भगवती सूत्र, शतक, १ - उद्दे० १