Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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· तृतीय अध्ययन, उद्देशक १
२३९ चाहे जल के ऊपर चलने वाली हो अर्थात् पानी के स्रोत के सामने चलने वाली हो या।अहेगा-जल के नीचे चलने वाली हो। तिरियगामि०-तिर्यक् चलने वाली हो। परं जोयणमेराए-उत्कृष्ट योजन की मर्यादा से (एक घण्टे में ८ मील की चाल से) चलने वाली हो। अद्धजोयणमेराए-या अर्द्धयोजन की मर्यादा से चलने वाली।अप्पतरे वा-ऐसी नौका पर थोड़े काल या। भुजतरे वा-बहुत काल के लिए।गमणाए-नदी से पार जाने के लिए।नो दुरूहिज्जा-सवार न हो।
से भिक्खू वा-वह साधु अथवा साध्वी। पुव्वामेव-पहले ही। तिरिच्छसंपाइम-तिर्यक् जल में चलने वाली। नावं जाणिज्जा-नौका के सम्बन्ध में जाने।जाणित्ता-और जानकर।से-वह भिक्षु।तमायाए-उस गृहस्थ की आज्ञा लेकर। एगंतमवक्कमिज्जा-एकान्त स्थान में चला जाए और वहां जाकर।भंडगं पडिलेहिज्जा २-भण्डोपकरण की प्रतिलेखना करे और प्रतिलेखन करके।एगओ भोयणभंडगंकरिज्जा २-फिर भंडोपकरण को एकत्रित करके। ससीसोवरियं कायं-सिर से लेकर शरीर को और। पाए-पैरों को। पमजिजा-प्रमार्जित करे, उसके पश्चात्। सागारं भत्तं पच्चक्खाइज्जा-आगार पूर्वक अन्न-पानी का त्याग करे अर्थात् यदि मैं सकुशल पार हो गया तो आहार-पानी करूंगा अन्यथा जीवन पर्यन्त के लिए मेरे आहार-पानी का त्याग है, इस प्रकार आगार सहित प्रत्याख्यान करे। एगं पायं जले किच्चा-एक पैर जल में रखे और। एगं पायं थले किच्चा-एक पैर स्थल में रखे। तओ-तदनन्तर। सं०-वह साधु। नावं दुरूहिजा-नौका पर चढ़े।
___ मूलार्थ-साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ यदि मार्ग में नौका द्वारा तैरने योग्य जल हो तो नौका से नदी पार करे। परन्तु इस बात का ध्यान रखे कि यदि गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देता हो या नौका उधार लेकर या परस्पर परिवर्तन करके या नौका को स्थल से जल में या जल से स्थल में लाता हो, या जल से परिपूर्ण नौका को जल से खाली करके या कीचड़ में फंसी हुई को बाहर निकाल कर और उसे तैयार कर के साधु को उस पर चढ़ने की प्रार्थना करे, तो इस प्रकार की ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी या तिर्यग् गामिनी नौका, जो कि उत्कृष्ट एक योजन क्षेत्र प्रमाण में, चलने वाली है या अर्द्धयोजन प्रमाण में चलने वाली है, ऐसी नौका पर थोड़े या बहुत समय तक गमन करने के लिए साधु सवार न हो अर्थात् ऐसी नौका पर बैठ कर नदी को पार न करे। किन्तु, पहले से ही तिर्यग् चलने वाली नौका को जानकर, गृहस्थ की आज्ञा लेकर फिर एकान्त स्थान में चला जाए और वहां जाकर भण्डोपकरण की प्रतिलेखना करके उसे एकत्रित करे, तदनन्तर सिर से पैर तक सारे शरीर को प्रमार्जित करके अगार सहित भक्त पान का परित्याग करता हुआ एक पांव जल में और एक स्थल में रखकर नौका पर यत्नापूर्वक चढ़े।
... हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि विहार करते हुए यदि मार्ग में नदी आ जाए और उसे बिना नौका के पार करना कठिन हो तो साधु अपनी मर्यादा का परिपालन करते हुए विवेक एवं यत्नापूर्वक नौका का उपयोग कर सकता है। यदि मुनि को नदी के किनारे खड़ा देखकर कोई गृहस्थ उसे पार पहुंचाने के लिए नाविक को पैसा देता हो या उससे नौका उधार लेता हो या उससे नाव का परिवर्तन करता हो, तो साधु को उस नाव पर नहीं बैठना चाहिए। इसी तरह यदि कोई नाविक साधु को नदी से पार करने के लिए अपनी नौका को जल में से स्थल पर लाता हो या स्थल पर से जल में ले जाता हो या कर्दम में फंसी हुई नाव को निकाल कर लाता हो, तो साधु उस नौका पर भी सवार न