Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन ईर्थेषणा
द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक के अन्तिम दो सूत्रों में नौका से नदी पार करने का उल्लेख किया गया है। अब प्रस्तुत उद्देशक में यह अभिव्यक्त किया गया है कि नौका पर सवार होने के पहले और बाद में साधु को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से णं परो णावा आउसंतो समणा ! एयं ता तुमं छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि, एयं ता तुमं दारगं वा पजेहि, नो से तं०॥१२०॥
छाया- स पर: नाविगतः नाविगतं वदेत् आयुष्मन् श्रमण ! एतत् तावत् त्वं छत्रकं वा यावत् चर्मछेदनकं वा गृहाण एतानि त्वं विरूपरूपाणि शस्त्रजातानि धारय। एतं तावत् त्वं दारकं वा पायय, न स तां परिज्ञां परिजानीयात्, तूष्णीकः उपेक्षेत्।
- पदार्थ-णं-वाक्यालंकार में है। से-वह। परोणावा-यदि नाविक नौका में बैठे हुए मुनि को इस प्रकार। वदेजा-कहे। आउसंतो समणा-हे आयुष्मन् श्रमण ! ता-पहले। तुम-तू। एयं-मेरे इस। छत्तगं वाछत्र। जाव-यावत।चम्मछयणगं वा-चर्म छेदिका-चमडे को काटने के शस्त्र विशेष को।गिण्हाहि-ग्रहण कर
और फिर। तुर्म-तू। एयाणि-ये। विरूवरूवाणि-नाना प्रकार के जो। सत्थजायाणि-शस्त्र आयुध विशेष हैं इनको।धारेहि-धारण कर, तथा। ता-पहले। तुम-तू। एयं-इस।दारगं-बालक को।पज्जेहि-पानी आदि पिला दे।से-वह साधु। तं-उस नाविक-गृहस्थ के इस। परिन्नं-वचन को। नो परिजाणिज्जा-स्वीकार न करे किन्तु। तुसिणीओ-मौन धारण करके।उवेहेजा-बैठा रहे।
मूलार्थयदि नाविक नाव पर सवार मुनि को यह कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! पहले तू मेरा छत्र यावत् चर्मछेदन करने के शस्त्र को ग्रहण कर। इन विविध शस्त्रों को धारण कर और इस बालक को पानी पिला दे। वह साधु उसके उक्त वचन को स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि नाविक साधु को छत्र, शस्त्र आदि धारण करने के लिए कहे या अपने बालक को पानी पिलाने के लिए कहे तो साधु उसकी बात स्वीकार न करे, किन्तु मौन भाव से आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि नाविक मुनि जीवन से सर्वथा अपरिचित होने के कारण उसे ऐसे आदेश देता है। यदि वह साधु के त्यागनिष्ठ जीवन से परिचित