Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
हो, भले ही वह नाव एक योजन गामिनी हो या इससे भी अधिक तेज गति से चलने वाली क्यों न हो । जिस नौका के लिए गृहस्थ को पैसा देना पड़े या जिसमें साधु के लिए नए रूप से आरम्भ करना पड़े साधु उस नाव में न बैठे। परन्तु, जो नाव पहले से ही पानी में हो, तो उस नाव से पार होने के लिए वह नाविक से याचना करे और उसके स्वीकार करने पर एकान्त स्थान में जाकर अपने भण्डोपकरणों को एकत्रित करे और अपने शरीर का सिर से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। उसके पश्चात् सागारिक संथारा करके. विवेक पूर्वक एक पैर पानी में और एक पैर स्थल पर रखकर यत्ना से नौका पर चढ़े।
प्रस्तुत सूत्र में ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी और तिर्यग् गामिनी नौकाओं का उल्लेख किया गया है। और इसमें ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं में बैठने का निषेध किया गया है। कारणवश केवल तिर्यग् गामिनी नौका पर सवार होने का ही आदेश दिया गया है। निशीथ सूत्र में भी ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं पर सवार होने वाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय आकाश में उड़ने एवं पानी के भीतर चलने वाली नौकाएं भी होती थी । उर्ध्वगामी नौका से वर्तमान युग के हवाई जहाज जैसे यान का होना सिद्ध होता है और अधोगामी नौका से पनडुब्बी का होना भी प्रमाणित होता है। वृत्तिकार ने उक्त तीनों तरह की नौकाओं का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने इन्हें स्रोत के सामने और स्रोत के अनुरूप और जल के मध्य में गतिशील नौकाएं बताया है । परन्तु यह अर्थ उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। क्योंकि आकाश एवं जल के भीतर चलने वाली नौकाओं के निषेध का तात्पर्य तो स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है, परन्तु, स्रोत के सामने एवं जल के मध्य में चलने वाली नौका पर सवार नहीं होने का तात्पर्य समझ में नहीं आता। इससे निष्कर्ष यह निकला कि साधु तिर्यग् गामिनी (पानी के ऊपर गति करने वाली) नौका पर सवार हो सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में एक या अर्ध योजन (८ या ४ मील) तक पानी में रहने वाली नौका पर सवार होने का निषेध किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इतनी या इससे अधिक दूरी का मार्ग नौका के द्वारा तय करना नहीं कल्पता ।
नौका में सवार होने के पूर्व जो सागारी अनशन करने का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि यदि मैं कुशलता पूर्वक किनारे पहुंच जाऊं तो मेरे आहार- पानी का त्याग नहीं है । परन्तु कभी
१ जे भिक्खू उड्ढगामिणिं वा णावं अहोगामिणिं वा णावं दुरूहति दुरूहूंतं वा साइज्जइ ।
निशीथसूत्र, १८, १७ । .
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यह अपवाद मार्ग है। यदि दूसरा साफ मार्ग हो जिसमें नदी नहीं पड़ती हो तो साधु को उस मार्ग से जाना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो और नदी में पानी की अधिकता हो तो मुनि नौका द्वारा उसे पार कर सकता है और यह अपवाद मार्ग उत्सर्ग मार्ग की भांति संयम में सहायक एवं निर्दोष माना गया है। क्योंकि, आगम में इसके लिए कहीं भी प्रायश्चित का विधान नहीं किया गया है। वर्तमान में नदी पार करने पर जो प्रायश्चित लेने की परम्परा है, वह नौका पर सवार होने या नदी पार करने का प्रायश्चित नहीं है। परन्तु उसके लेने का उद्देश्य यह है कि आगम में जिस विधि से नदी पार करने एवं नौका में सवार होने का उल्लेख किया गया है, उस विधि का यथार्थ पालन नहीं होता है। अतः प्रमादवश जो आगम की विधि का उल्लंघन होता है, उसका प्रायश्चित लिया जाता है, न कि अपवाद मार्ग में नौका में सवार होने का। क्योंकि, अपवाद भी उत्सर्ग की तरह का सन्मार्ग है, यदि आगम में उल्लिखित विधि के अनुरूप समभाव से उसका सेवन किया जाए।
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