Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पदार्थ- से भिक्खू वा०-वह साधु या साध्वी। गामा०-ग्रामानुग्राम। दूइज्जमाणे-विहार करता हुआ।अन्तरा से-जिस मार्ग के मध्य में। विरूवरूवाणि-नाना प्रकार के। पच्चंतिगाणि-देश की सीमा में रहने वाले। दस्सुगायणाणि-चोरों के स्थान हों। मिलक्खूणि-म्लेच्छों के स्थान हों। अणायरियाणि-अनार्यों के स्थान हों। दुस्सन्नप्पाणि-जिन्हें आर्य देश की भाषा आदि कठिनाई से समझाई जा सकती है और। दुप्पन्नवणिजाणि-जिन्हें कष्ट पूर्वक उपदेश दिया जा सकता है अर्थात् कष्टपूर्वक उपदेश देने पर भी जो धर्म मार्ग में नहीं आते। अकालपडिबोहीणि-अकाल में जागने वाले और अकाल में ही मृगया-शिकार के लिए उठकर जाने वाले।अकालपरिभोईणि-अकाल में भोजन करने वाले। सइ लाढे विहाराए-अन्य अच्छे आर्य देश के। संथरमाणेहि-विद्यमान होने पर तथा। जाणवएहिं-अच्छे अन्य भद्र देश के विद्यमान होने पर।विहारवडियाएऐसे देश में विचरने की प्रतिज्ञा से-विहार करने का। नो पवजिज्जा गमणाए-मन में विचार न करे अर्थात् ऐसे देशों में विहार करने के लिए कभी संकल्प न करे। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। आयाणमेयं-यह कर्म के आने का कारण है अर्थात् वहां जाने पर कर्म का बन्ध होता है यथा। ते-वे। णं-वाक्यालंकार में है। बाला-बाल-अज्ञानी साधु को देखकर साधु के प्रति कहते हैं। अयं-यह। तेणे-चोर है। अयं-यह व्यक्ति। उवचरए-उपचर अर्थात गुप्तचर (जासूस) है। अयं-यह। ततो-वहां से-हमारे शत्रु के गांव से। आगए-आया है अर्थात् हमारा भेद लेने को आया है। त्तिकटु-ऐसा कहकर। तं भिक्खुं-उस भिक्षु को। अक्कोसिज वाकठोर वचन बोलेंगे। जाव-यावत्। उद्दविज वा-मारणांतिक उपसर्ग देंगे, या मारेंगे या साधु के। वत्थं वावस्त्र।प०-पात्र। क-कम्बल। पायल-पादप्रोञ्छन तथा रजोहरण या पैर पूंछने के वस्त्र आदि का।अच्छिंदिजछेदन करेंगे। वा-अथवा। भिंदिज-भेदन करेंगे या। अवहरिज वा-उनका अपहरण करेंगे अर्थात् छीन लें। परिट्ठविज वा-या उस मुनि के उपकरणों को तोड़-फोड़ कर फैंक दें। अह भिक्खूणं-अतः भिक्षुओं को। पु०-तीर्थंकरादि ने पहले ही यह उपदेश दिया है कि। जं-जो। तहप्पगाराइं-तथा प्रकार के। विरूव-नानाविध। पच्चंतियाणि-देश की सीमा में होने वाले। दस्सुगा-चोरों के स्थान में। जाव-यावत्। विहारवत्तियाए-विहार करने के लिए। नो पवजिज वा गमणाए-मन में विचार भी न करे। तओ-तदनन्तर उक्त स्थानों को छोड़ता हुआ। संजया-संयमशील साधु। गा• दू०-ग्रामानुग्राम-एक गांव से दूसरे गांव को विहार करे।
मूलार्थ-साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विचरता हुआ जिस मार्ग में नाना प्रकार के देश की सीमा में रहने वाले चोरों के, म्लेच्छों के और अनार्यों के स्थान हों तथा जिनको कठिनता पूर्वक समझाया जा सकता है या जिन्हें आर्य धर्म बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सकता है ऐसे अकाल (कुसमय) में जागने वाले, अकाल (कुसमय) में खाने वाले मनुष्य रहते हों, तो अन्य आर्य क्षेत्र के होते हुए ऐसे क्षेत्रों में विहार करने को कभी मन में भी संकल्प न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि वहां जाना कर्म-बन्धन का कारण है। वे अनार्य लोग साधु को देखकर कहते हैं कि यह चोर है, गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गांव से आया है, इत्यादि बातें कह कर वे उस भिक्षु को कठोर वचन बोलेंगे, उपद्रव करेंगे और उस साधु के वस्त्र,पात्र, कम्बल और पाद प्रोंछन आदि का छेदन-भेदन या अपहरण करेंगे या उन्हें तोड़-फोड़कर दूर फैंक देंगे क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब संभव हो सकता है। इसलिए भिक्षुओं को तीर्थंकरादि ने पहले ही यह उपदेश दिया है कि साधु इस